नैतिकता से बलात्कार कब तक

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यही हुआ जिसकी आशंका थी। ऐसा ही इस देश में होता आया है। हैदराबाद एनकांउटर को शंका की नजर से देखा जा रहा है, पहले से ही यह धारणा बना ली गई कि पुलिस की कहानी असत्य है। किसी भी फर्जी एनकांउटर में पुलिसकर्मियों के सिर पर गम्भीर चोट नहींआती। पर, इस प्रकरण में ऐसा ही हुआ है, दो पुलिसक र्मी घायल हैं जिसमें एक की स्थिति नाजुक है। जो बुद्घिजीवी यह तर्क दें रहे हैं कि बिना न्यायिक प्रक्रिया के किसी को भी दोषी नहीं माना जा सकता, वे यह क्यों भूल रहे हैं कि वर्णित एनकांउटर की न्यायिक जांच चल रही है। इतना धैर्य क्यों नहीं है कि जांच आख्या की प्रतीक्षा की जाए। देश में नकारात्मक सोच रखने वालो की कमी नहीं है। ये वे ही हैं जो अफजल गुरु की फॉसी को अन्याय कहते हैं और देश में सौहार्द की कमी का रोना रोकर पुरस्कार वापस करते हैं। प्रथम दृष्टि देखा जाए तो परिस्थितिजन्य साक्ष्य यह सिद्घ करते हैं कि बलात्कारियों ने हमलाकर भागने का प्रयास किया था। इस कथन को तब तक गलत नहीं कहा जा सकता, जब तक न्यायिक जांच में गलत न माना जाए। यह सही है कि पुलिस का कार्य केवल अपराधी को पकडक़र न्यायालय में प्रस्तुत करना है। वह दंडित करने वाली न्यायिक शक्ति नहीं है। लेकि न उसको आत्मरक्षा का भी अधिकार है। हैदराबाद प्रकरण में फिलहाल पुलिस के इस कथन को स्वीकार करना चाहिए।

अच्छा यह रहा कि तेलंगाना में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है। यदि होती तो देश का राजनीतिक वातावरण कितना अधिक विषाक्त हो जाता कि प्रधानमंत्री मोदी के त्यागपत्र की मांग भी उठने लगती। कुछ राजनेता तथा सामाजिक -बौद्घिक संगठनों से जुड़े लोग आरोपित अपराधियों को साथ अन्याय मान रहे हैं। भारतीय संसद में भी एनकांउटर के विरोध में आवाज उठाई गई। हैदराबाद बलात्कार प्रकरण किसी एक महिला के साथ किया गया एक ऐसा व्यक्ति श: अपराध था जो पुरुष प्रधान समाज की विकृत मानसिकता के कारण प्रत्येक बीस मिनट में एक नारी की अस्मिता को तार-तार करता है। पूरा देश पुलिस की कार्रवाई के समर्थन में खड़ा है। शायद पहली बार भारत के इतिहास में ऐसा हुआ हो, जब पुलिस महानायक के सम्मान से गौरवान्वित की गईहो। पर, इस देश में एक परम्परा बन गई है कि यदि राष्ट्रघाती या समाजघाती भी पुलिस के एनकांउटर में मारा जाता है तो कथित बुद्घिजीवियों के आंखों से बरसात होने लगती है। उन लोगों के समर्थन में कथित मानवाधिकार हाय-तौबा मचाने लगते हैं जो भारत राष्ट्र की अस्मिता और आस्तित्व को खुली चुनौती देते हैं। हमारे सामने गुजरात का एक बहुचर्चित एनकाउंटर है। इसमें वे मारे गए थे जो न केवल भारतीय गुप्तचर अभिकरणों की नजर में देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक थे बल्कि देश में आतंकवाद का एक नया अध्याय भी लिखना चाहते थे। सोहराबुद्दीन शेख जैसे आतंकी तथा घोर अपराधी का एनकाउंटर 26 नवम्बर,2005 हुआ था।

वह साधारण अपराधी नहीं था, उसका संबंध पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी से था और वह लश्कर-ए-तौबा का आतंकी था। वह भारत में अराजकता तथा संगठित आंतक फैलाना चाहता था। सन 1995 में जिला उज्जैन स्थित उसके निवास स्थान से 40 एके -47 बरामद की गई थीं। आतंक फैलाने तथा देश के प्रति विद्रोह की भावना रखने वाले सोहराबुद्दीन की मौत पर देश भर में जिस प्रकार की राजनीति की गई, उसमें पुलिस अधिकारी तथा कुछ अधिकारी अपराधी घोषित कर दिए गए। लगभग 22 लोगों को जेल की यात्रा पर जाना पड़ा। देश में ऐसा वातावरण तैयार कि या गया कि जैसे सोहराबुद्दीन शेख देश का महान नायक हो। उस समय मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे। एक से एक खतरनाक विश्लेषण उनके लिए प्रयोग किया गया। खून का सौदागर, राक्षस, हत्यारा जैसे दर्जनों घृणास्पद शब्दों का प्रयोग उनके लिए किया गया। यह तर्क ठीक प्रतीत होता है कि देश में व्यवस्था का संचालन वैधानिक व्यवस्थाओं तथा न्यायिक प्रक्रि याओं से चलना चाहिए, न कि पुलिस की गोली से। इस सिद्घान्त को पुलिस भी स्वीकार करती है। इस वैधानिक प्रक्रिया की स्वीकार्यता के पश्चात भी कुछ घटनाएं ऐसी होती है कि गोली का चलाना अनिवार्य हो जाता है। हैदराबाद प्रकरण में आरोपित भागने का प्रयास कर रहे थे। यदि वे पुलिस के हथियार लेकर भाग जाते तो क्या देश की जनता पुलिस को क्षमा करती? जो नेता एनकाउंटर का विरोध कर रहे हैं, वे ही ऐसा होने पर सर्वाधिक शोर मचाते। वह जनता जिसने पुलिस पर पुष्प वर्षा की, वह ही उपद्रव करने लगती।

यह स्थिति देश के लिए और संकटकारी होती। कर्त्तव्य पालन की कुछ मर्यादाएं होती हैं। पुलिस की भी ऐसी ही मर्यादाएं हैं। हर जगह पुलिस गलत नहीं हो सकती। गुजरात का एक और एनकाउंटर राजनीतिक क्षेत्रों में लाभकारी संसाधन के रूप में प्रयोग किया गया, यह इशरत जहां का एनकाउंटर था जो 15 जून 2004 को हुआ था। इशरद जहां को भारत की महान बेटी के रूप में वर्णित किया जाने लगा। बिहार सरकार ने अपने स्वास्थ्य विभाग की रोगी वाहन सेवा का नाम ही इशरद जहां रख लिया था। जबकि सत्य यह है कि वह लश्कर-ए-तौबा की आत्मघाती आतंकी थी। जमात-उत-दावा के प्रचार पत्रकों में इशरद जहां को अपना सदस्य बताया गया था। आतंकी हेडली ने भी अपने बयान में उसको आत्मघाती आतंकी कहा था। उसकी मौत पर देश भर में साम्प्रदायिकता वातावरण बनाने का प्रयास किया गया और इस प्रकार से राजनीति की जाने लगी कि देश में अल्पसंगयक सुरक्षित नहीं है और एक निश्चित सोच उनका दमन कर रही है। अमेरिका के गुप्तचर अभिकरण एफबीआई ने भी भारत सरकार को यह सूचित किया था कि इशरद जहां एक खतरनाक आत्मघाती आतंकी है और वह किसी बड़ी घटना को कार्यरूप देना चाहती है। जिन पुलिसकर्मियों ने देशभक्ति की भावना से अभिप्रेरित होकर उसका एनकांउटर किया, वे अपराधी मान लिए गए और उनको जेल की सलाखों के पीछे कर दिया गया।

हैदराबाद की आग अभी शांत नहीं हुई थी, कि उन्नाव में एक नारी को नरपिशाचों ने आग के हवाले कर दिया। बंगाल के मालदा में भी ऐसा ही हुआ ऐसी स्थिति में आरोपित अपराधियों के पक्ष में खड़ा हो जाना और उनके मानवाधिकारों की बात करना, कितना ह्दयविदारक लगता है। समस्या कानून व्यवस्था की हो सकती है लेकिन उससे पहले यह सामाजिक तथा पारिवारिक परिवेशगत समस्या भी है। कोई भी कानून ऐसे अपराध नहीं रोक सकता, प्राथमिक आवश्यकता सामाजिक चेतना और पारिवारिक वातावरण में महिलाओं के सम्मान की प्रवृति को विकसित करना है। बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की मनोवृति स्वाभाविक जैविक विकास क्रम का अंग नहीं है। यह परिवेशगत संस्कारो से उदित होती है। इसे रोकने का दायित्व केवल सरकार का नहीं है, वह सामूहिक दायित्व भावनो का एक हिस्सा है। ऐसी स्थिति में भी कुछ राजनेताओं का व्यवहार और अधिक कष्टकारी हो रहा है। उनके नकारात्मक विचार और भाव खास निर्णय लेने के लिए उनको उक साते हैं जिसका संबंध या तो राजनीतिक लाभ है या फिर स्वयं को सबसे पृथक दिखाने की मानसिक निर्बलता है। चाहे हैदराबाद प्रकरण हो या कोई और इसको राजनीतिक खेल का अखाड़ा नहीं बनाना चाहिए। अन्यथा इस प्रकार का व्यवहार भी नैतिक ता के साथ बलात्कार ही माना जाएगा।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने निजी विचार हैं)

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