नेताजी से भयभीत थे नेहरु

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इतिहास कभी पुराना नहीं होता, वह सदा जीवंत और आधुनिक रहता है। वह उस परिस्थिति में अधिक प्रासंगिक हो जाता है, जब इतिहास के सत्य से इतर धारणाओं को थोपने का कार्य होता है। यही नेताजी तथा नेहरू के मध्य संबंधों को लेकर किया गया। गांधीजी के पश्चात सबसे लोक प्रिय नेता जी थे। कुछ सत्ता लोभी नेताओं को यह संकट पैदा हो गया कि यदि भारत स्वतंत्र होता है तो जनता उनको शासक के रूप में स्वीकार नहीं करेगी। इसलिए आजादी से पहले बाद तक यह शंका विशेषकर नेहरू को परेशान करती रही कि कहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस के हाथों में देश की कमान न आ जाए। इसी भय के कारण नेताजी का अपमान होता रहा और उनको सत्ता से दूर रखने की साजिस रची जाती रहीं। लार्ड मांउटबेटन के सचिव एल भेांसले ने ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तिम दिनों पर स्मरणात्मक पुस्तक लिखी जिसमें कहा गया है कि भारतीय नेताओं और ब्रिटिश साम्राज्य के मध्य यह समझौता हुआ था कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एक युद्घ अपराधी है।

यदि वे जीवित हैं तो उन्हें भारत में प्रवेश नहीं दिया जाएगा और यदि वे भारत में प्रवास करने के लिए आ जाते हैं तो भारत सरकार बन्दी बनाकर मित्र राष्ट्रों को सौप देगी। यह समझौता नेहरू की सहमति से किया गया। आजादी के बाद जनता की मांग पर नेताजी की रहस्यमय मृत्यु को लेकर जांच आयोग की औपचारिकता पूरी की गई। उसमें श्याम लाल जैन नामक एक व्यक्ति की गवाही हुई थी। यह व्यक्ति नेहरू का विश्वासपात्र टाइपिस्ट था। उसने बताया कि नेहरू ने उससे एक पत्र टाइप करवाया था जिसमें लिखा गया था कि 23 अगस्त 1945 को नेताजी मुचूरिया के हवाई अड्डे पर देख गए हैं और वे उसके पश्चात एक जीप से सोवियत संघ की सीमा में प्रवेश कर गए। यह पत्र ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली को लिखा गया जिसमें यह भी क हा गया कि आपका युद्घ अपराधी स्टालिन के सहयोग से रूस में है। रूस ने मित्र राष्ट्रों का विश्वास खण्डित किया है, उसे नेताजी को संरक्षण नहीं देना चाहिए था। आप उसे पकडऩ़े की उचित कार्रवाई करें। नेहरू ने नेताजी के प्रति लोक आस्था और प्रेम को देखते हुए ऐसे शासनादेश जारी किए जिससे उनके त्याग और राष्ट्र के लिए किए गए कार्यों को भारतीय विस्मृत कर सके।

11 फरवरी 1949 को भारतीय सेना के विभिन्न कार्यालयों में एक गोपनीय पत्र संख्या 155211 प्रेषित किया गया जिसमें सगत आदेश दिया गया कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का कोई भी चित्र किसी भी कार्यालय या अनुभाग में नहीं लगाया जायेगा। इसके पश्चात सभी शासकीय कार्यालयों से नेताजी के चित्र हटाने का अभियान चलाया गया। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने स्वतंत्र भारत की सरकार की घोषणा की थी। इस घोषणा के साथ ब्रिटिश साम्राज्य में बेचैनी फैल गई। अंग्रेजों को यह आशंका थी कि यदि भारत में नेताजी के समर्थन में जनान्दोलन शुरू हो गया तो महासमर के मध्य एक कठिन समस्या पैदा हो जाएगी। जो समर्थन और संसाधन भारत से मिल रहे हैं एवं मिलने बन्द हो जाएंगे। इस घबराहट में कांग्रेस से सहयोग लेने की योजना बनी। नेफा क्षेत्र में आजाद हिन्द सेना को भारी सफलता मिल चुकी थी। इसे अतिरिक्त नौ देशों ने स्वतंत्र भारत सरकार को मान्यता भी दे दी थी। नेताजी की प्रतिष्ठा को कम करने और भारत से उनको मिलने वाले जनसमर्थन को रोकने के लिये एक नीति तैयार की गई, जिनके अनुसार नेहरू को भावी प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया गया।

ब्रिटेन में भारत सचिव ने एक तार वायसराय को भेजा कि नेहरू को भावी प्रधानमंत्री के रूप में समझा जाए। इसके बाद नेहरू खुलकर नेताजी के विरोध में खड़े हो गए। उन्होंने उन्हें अपमानजनक शब्दों से सम्बोधित किया और कहा कि वह भारत की धरती पर कदम रखता है तो सबसे पहले तलवार लेकर मैं उससे लडऩ़े जाऊंगा। जनता के मस्तिष्क में यह बात बैठा दी गई कि नेताजी जर्मनी और जापान की साम्राज्यवादी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कार्य कर रहे हैं। 18 मार्च 1944 को नेताजी ने कोहिमा पर अधिकार कर लिया और स्वतंत्र भारत का घ्वज फहरा दिया। इसी तरह अडंमान और निकोबार पर भी भारतीय सैनिकों का नियंत्रण हो गया। नेताजी ने उनके नाम परिवर्तित कर क् मश: स्वराज और शहीद रखा। लेकिन आजादी के बाद इन नामों को प्रतिबन्धित कर दिया गया और वे ही नाम स्वीकार किए गए जो अंग्रेजों ने दिए थे। नेहरू की पहली सरकार ने उन प्रतीकों को भी संरक्षित करने का प्रयास नहीं किया जो नेताजी ने इन द्वीपों को स्वतंत्र कराते समय स्थापित किए थे।

ऐसी कोई योजना नहीं बनाई गई कि वहां नेताजी की स्मृतियों और शहीद भारतीय सैनिकों के महान बलिदान को देशवासियों को दिखाया जा सके । आजाद हिन्द सेना के सिपाहियों पर किए गए अत्याचारों से खिन्न भारतीय सैनिकों में आक्रोश पैदा हो गया। जल सेना के तलवार जहाज के सैनिकों ने एमएस खान के नेतृत्व में 18 फरवरी 1946 को विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह इतना तीव्र था कि इसमे 460 ब्रिटिश अधिकारी मारे गए। यह विद्रोह देश के अन्य भागों में भी दिखाई दिया। ब्रिटिश सेनापति ओचिन्लेक ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को तत्काल तार किया कि भारत को तुरन्त त्याग देना चाहिए। यहां की परिस्थितियां ब्रिटेन के अनुकूल नहीं है। अत: 19 फ रवरी 1946 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश संसद में भारत को स्वतंत्र करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। ब्रिटिश साम्राज्य के सामने अपने निवेश और कार्यरत अधिकारियों को सुरक्षित निकालने की चिन्ता थी। इसलिए उन्हें ऐसे व्यक्ति के सहयोग की जरूरत थी जो उसके हितों को सुरक्षित रख सके।

नेहरू का चुनाव ब्रिटेन पहले ही कर चुका था। अब उन्हें भावी प्रधानमंत्री का स्पष्ट आश्वासन देना था। लार्ड माउंटबेटन उस समय एलाइट फोर्सेज की दक्षिणी पूर्वी एशिया शाखा के सुप्रीम सेनापति थे और उनकी नियुक्ति सिंगापुर थी। 23 मार्च 1946 को एक विशेष विमान से नेहरू को सिंगापुर बुलाया गया और वहां उन्हें भावी प्रधानमंत्री मानते हुए पूर्ण सम्मान प्रदान किया गया। इस तिथि को अंग्रेजों ने जानबूझ कर चुना था। 23 मार्च को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सरदार भगत सिंह का शहीदी दिवस मनाते थे। अंग्रेज यह संदेश देना चाहते थे कि कांग्रेस का क्रांतिकारियों से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह अंग्रेजों की मित्र संगठन है। नेहरू को गांधीजी का उत्तराधिकारी और प्रवक्ता माना जाता था। इसलिये देश की भोली भाली जनता उनके व्यवहार को गांधीजी के स्वीकृत व्यवहार की श्रेणी में रखती थी। सबसे विचित्र बात यह है कि नेताजी के बारे में बैठे शाहनवाज आयोग में उनके भाई को भी सम्मिलित किया गया था लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य और भारतीय नेताओं के मध्य सत्ता हस्तान्तरण के समय जो अनुबन्ध हुआ और गोपनीय प्रतिवेदन दिये गये, उन्हें आयोग से समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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