नीतियों को भ्रष्टाचार चलने ही कहां देता है?

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सवाल ये उठते हैं कि आखिर चुनाव के वक्त ऐसा कौन सा जादुई चिराग इन दलों और नेताओं के हाथ में होता है जो जनता का साथ मिलते ही सारे वादे पूरे कर सकते हैं? कड़वा सच यही है कि ना तो इनके पास जादुई चिराग होता है और ना ही सब दलों के वादों में अब जादू बचा है।

लोकसभा चुनाव सिर पर हैं तो सारी पार्टियां हर वो दांव खेलेंगी जिससे जनता में ये संदेश जाए कि केवल वही जनकल्याण के मामले में दूसरों से बेहतर है और अगर उन्हें जनता ने चुना तो वो देश में न तो गरीबी को छोड़ेगी और ना ही किसी को बेरोजगार रहने देंगी। तो सवाल ये उठते हैं कि आखिर चुनाव के वक्त ऐसा कौन सा जादुई चिराग इन दलों और नेताओं के हाथ में होता है जो जनता का साथ मिलते ही सारे वादे पूरे कर सकते हैं? कड़वा सच यही है कि ना तो इनके पासे जादुई चिराग होता है और ना ही सब दलों के वादों में अब जादू बचा है। केवल बातें जादुई जरूर करते हैं। ताकि जनता उन्हें दूसरों के मुताबिक ज्यादा नजदीक महसूस करे। ये चुनावी दांव ही तो है कि राजपाट अगर मिला तो राहुल गांधी खजाने का मुंह खोल देंगे और हर गरीब को न्यूनतम आय की गारंटी को पूरा करेंगे। उनके इस ऐलान पर हर दल खासकर भाजपा सवालिया निशान खड़े कर रही है और करना भी चाहिए यही तो राजनीति की रीत है कि दूसरा कोई कुछ अच्छा बोले तो उसके ऐलान की चीरफाड़ की जाए। ताकि जनता को बताया जा सके कि सब ढकोसला है। भारत की मौजूदा राजनीति में यही हो रहा है कि खुद की योजनाएं बनाने से ज्यादा विपक्षी की योजनाओं की छीछालेदर की जाए। तो सवाल यही पैदा होता है कि आखिर अपने भरोसे राजनीतिक दल क्या नहीं करते?

दूसरे की खामी से राजपाट पाने की सोच कहां तक जायज है? जहां तक न्यूनतम आमदनी गारंटी योजना का सवाल है तो इसे पूरा करना उतना दिक्कत तलब नहीं है जितना हल्ला मचाया जा रहा है। आखिर तमाम चीजों पर दी जा रही सब्सडी की जरूरत क्या है? हर साल देश के गरीब व मध्यम तबके को एक निश्चित पैसा दो और ये उस पर छोड़ दो कि वो उस पैसे को चाहे गैस पर खर्च करे या फिर जरूरत की दूसरी चीजों पर। लेकिन जिस देश में वेषभूषा से लेकर खान-पान तक तय करने की सरकारें ही सोचने लही हैं तो वहां पर किस बिना पर पैसा खर्च करने की जनता को छूट मिल सकती है? हैरानी की बात तो यही है जिस खजाने के ऊपर ये सरकारे कूदती-फांदती हैं और तरह-तरह के बयाने देती हैं वो खजाना भी जनता के पैसे ही भरता और चलता है। लोकतंत्र की विडंबना देखिये-खजाना जनता की और फैसला करती हैं सरकारें?

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ही न्यूनतम आय की गारंटी योजना पर अमल करेगी, भाजपा भी ऐसी ही सोच रही थी। अंदरखाने से ऐसी खबरें भी आती थी कि मोदी चाह रहे हैं लेकिन राहुल ने दांव खेल दिया और भाजपाई केवल सोचते ही रह गए। तो सवाल ये भी उठता है कि कांग्रेस के इस ऐलान से क्या जनता फिर हाथ को मजबूत करेगी? मनरेगा के हाल किसी से छिपे नहीं है। भ्रष्टाचार की घुन उसे खोखला कर चुकी है। शाम तक काम करने वाला मजदूर जब खुद को ठगा महसूस करता है तो सोचिए लोकतंत्र के प्रति उसके मन में कैसी धारणा होती होगी? पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी जी चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे कि हर शख्स के हिस्से में 15 लाख आएंगे। वो तो चुनवी शगूफा निकला तो इस बात की गारंटी क्या है कि कांग्रेस सत्ता में आने के बाद मिनिमम आय की गारंटी के वादे को फलीभूत करेगी? इसकी क्या गारंटी है कि जिन्हें ये मिलेगा, उनके खाते तक पहुंचाने की जिम्मेदारी निभाने वाले घपला नहीं करेंगे? क्या होगा ये तो वक्त बताएगा लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं रह गई है कि अब भारत में दो देश हैं एक आम आदमी का और दूसरा कारोबारियों का। एक को एक रुपये के लिए जूझना पड़ता है, दूसरा सरकार की शह पर सौ फीसद मुनाफा कमाकर खरबपतियों की लिस्ट में और ऊपर पहुंच जाता है। तो फिर कैसे मान लिया जाए कि ये देश आम जनता के लिए है?

लेखक
डीपीएस पंवार

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