देश में लोकतंत्र की जड़े बहुत गहरी

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भारत में नरेंद्र मोदी का शासन क्या बहुसंख्यकवाद का प्रतीक है? चुनाव नतीजों के बाद से ही इसे लेकर बहस चल रही है। ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी को भी इसका अहसास है, तभी उन्होंने अपने पहले भाषण में ‘सबका विश्वास’ की बात कही। केरल में उन्होंने इस बात को अलग तरीके से दोहराया। उन्होंने कहा कि केरल में उनकी पार्टी का खाता नहीं खुला है पर वे अपनी सबसे पहली यात्रा पर केरल आए हैं, लोगों का आभार जताने। सबका साथ, सबका विकास के साथ सबका विश्वास जोड़ना और केरल के लोगों का आभार जताते हुए प्रधानमंत्री का यह कहना कि जिन्होंने भाजपा को वोट नहीं दिया वे भी उनके अपने हैं और उनको जितना प्यार वाराणसी से है उतना की केरल से है, इस बात का संकेत है कि प्रधानमंत्री मोदी को भी इतने प्रचंड बहुमत को लेकर चल रहे विमर्श की खबर है।

ध्यान रहे लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद ये दोनों दो विपरीत अवधारणाएं हैं। लोकतंत्र, जहां जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है वहीं बहुसंख्यकवाद एक ऐसा राजनीतिक विचार है, जिसमें आबादी की बहुसंख्या को समाज में प्राथमिकता मिलती है। यह बहुसंख्या- जाति, धर्म, भाषा के आधार पर कैसी भी हो सकती है। इस बहुसंख्या को अगर समाज को प्रभावित करने वाले अहम फैसले करने का अतिरिक्त अधिकार मिले तो वह बहुसंख्यकवाद कहा जाएगा। परिभाषा के हिसाब से देखें तो यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत में बहुसंख्यकवाद है।

भारत में लोकतंत्र है, जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और इस बार भी चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हुआ है, जिसमें नरेंद्र मोदी की कमान में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला है। इससे पहले भी भारत में पार्टियों को इतना बड़ा या इससे भी बड़ा बहुमत मिलता रहा है। दो-तिहाई और तीन-चौथाई बहुमत भी मिलते रहे हैं पर पहले कभी ऐसी चर्चा नहीं हुई कि देश में बहुसंख्यकवाद आ गया या ऐसी सरकार आ गई, जिससे देश के अल्पसंख्यकों को डरना चाहिए। फिर सवाल है कि इस बार ऐसी चर्चा क्यों हो रही है? क्या इसलिए कि भाजपा हिंदू हितों की बात करने वाली पार्टी है? या इसलिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह हैं?

असल में भाजपा ने जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ा और चुनाव प्रचार में जिस किस्म का विमर्श चला उसे देख कर ही कहा जा रहा है कि यह आम लोकतांत्रिक सरकारों से कुछ अलग किस्म की सरकार है। चुनाव प्रचार में ऐसे मुद्दे उठाए गए, जो सांकेतिक रूप से हिंदू सर्वोच्चता की ओर इशारा करते हैं। जैसे पश्चिम बंगाल में भाजपा ने जय श्री राम के नारे पर चुनाव लड़ा। उत्तर प्रदेश में अली और बजरंग बली के नाम पर चुनाव लड़ा गया। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए हटाने का मुद्दा भी प्रचार में प्रमुखता से उठाया गया तो अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का मुद्दा भी उठाया गया। पिछली सरकारों पर ईद पर बिजली देने और दिवाली पर नहीं देने के आरोप लगे। पाकिस्तान के घर में घुस कर उसे ठोक देने का विमर्श तो खुद प्रधानमंत्री मोदी ने बनाया।

भाजपा ने अपने घोषणापत्र में जो मुद्दे उठाए उनसे लेकर प्रचार के दौरान पिछली सरकारों पर लगाए गए आरोपों का एक इशारा इस ओर था कि पिछली सरकारें मुस्लिम तुष्टीकरण करती रही हैं। तभी जब भाजपा को इतना बड़ा बहुमत मिला तो उसका निष्कर्ष यह निकाला गया कि सरकार कथित मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को बदलेगी और उसका अनिवार्य मतलब यह होगा कि बहुसंख्यक हिंदुओं के हितों का ध्यान रखेगी। याद करें पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का यह कहा कि भाजपा की सरकार बनी तो हिंदू, बौद्ध और सिख को छोड़ कर बाकी सारे घुसपैठिए देश से निकाले जाएंगे। उनका इशारा किस ओर था यह किसी से छिपा नहीं था। दूसरे, यह एक बात दशकों से भारत में प्रचारित है और कुछ हद तक सही भी है कि मुस्लिम भाजपा को वोट नहीं देते हैं। हालांकि इस बार प्रचार के दौरान यह स्पष्ट करने का प्रयास हुआ कि तीन तलाक कानून की वजह से मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा को वोट किया है या ऐसे भी कुछ मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया है। पर मोटे तौर पर यह धारणा इस बार ज्यादा मजबूत हुई कि चुनाव मुस्लिम विरोध पर लड़ा जा रहा है और इसलिए मुस्लिम भाजपा को वोट नहीं दे रहे हैं। विपक्षी पार्टियों ने इस धारणा को और मजबूत किया क्योंकि कांग्रेस से लेकर तृणमूल कांग्रेस और राजद से लेकर सपा, बसपा तक के नेताओं ने कई जगह मुस्लिम समुदाय के लोगों से एकजुट होकर भाजपा के विरोध में वोट करने की अपील की।

चूंकि चुनाव प्रचार के दौरान धर्म और संप्रदाय के आधार पर वोट मांगने पर इतना ज्यादा फोकस रहा कि चुनाव नतीजों के बाद अनिवार्य रूप से यह माना जाने लगा कि बहुसंख्यकों का शासन आ गया और अब देश के अल्पसंख्यकों खास कर मुस्लिम और ईसाइयों की खैर नहीं है। पर क्या सचमुच ऐसा है? असल में भारत में या किसी भी लोकतांत्रिक देश में धर्म के आधार पर शासन नहीं चलाया जा सकता है। इसका कारण यह है कि संविधान के जरिए ढेर सारे चेक एंड बैलेंस के सिस्टम बनाए गए हैं। दूसरे चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी पूरी आबादी की होती है, जिसे बार बार नरेंद्र मोदी बता रहे हैं। फिर भी इस बारे में अंतिम तौर पर कुछ भी तभी कहा जा सकता है, जब सरकार के कामकाज से ऐसा साबित हो। प्रधानमंत्री ने बार बार कहा है कि उनकी सरकार सवा सौ करोड़ लोगों की सरकार है और सबको साथ लेकर चलेगी। उनकी इस बात पर तत्काल सवाल उठाने या अविश्वास करने का कोई आधार नहीं है। पांच साल के उनके कामकाज के आधार पर भी कहा जा सकता है कि थोड़े बहुत अंतर के साथ शासन वैसे ही चलेगा, जैसे पहले चलता रहा है। इसलिए किसी को चिंतित या आशंकित होने की जरूरत नहीं है।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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