देर से मिला इंसाफ

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सात साल बाद आखिरकार निर्भया काण्ड के दोषियों को फांसी देने का फरमान जारी हो गया। 22 जनवरी को दुष्कर्मियों को फांसी दी जाएगी। ठीक सात साल पहले दिल्ली में निर्भया काण्ड से पूरा देश हिल गया था। दरिंदों को देर से सही अपने कर्मों का दंड मिलने का रास्ता साफ हुआ है। हालांकि अभी तक एक पेंच यूरेटिव पिटीशन का बाकी है। इस फैसले से निश्चित तौर पर महिलाओं को नई ताकत मिली है। दुष्कर्म का शिकार उन युवतियों में भी आस जगी है कि उन्हें भी इंसाफ मिलेगा। वैसे इंसाफ की रतार को लेकर जरूर पीडि़ताओं को रंज है। हालांकि फास्ट ट्रैक कोर्ट खोले गए हैं और खोले भी जा रहे हैं ताकि संवेदनशील मामलों की सुनवाई एक तय समय में अंजाम तक पहुंचे। इरादा ठीक है इसीलिए इसकी अनुशंसा की गई थी। लेकिन रेप और मर्डर का ग्राफ जिस तरह बढ़ा है उस हिसाबसे फास्ट ट्रैक नहीं खुले हैं। हालांकि जो खुले हैं, उनमें दूसरे मामले भी सुने जाते हैं। इसलिए मौजूदा वक्त में जो हैं भी उसका ऐसे मामलों के निपटारे पर असर पड़ता नहीं दिख रहा है। इसी को ध्यान में रखते हुए यूपी में योगी सरकार ने नई व्यवस्था दी है, जिसके मुताबिक फास्ट ट्रैक कोर्ट में दुष्कर्म से जुड़े मामले ही जज सुनेंगे।

इससे फैसला आने में देरी नहीं होगी। सजा की रतार अभी चिंताजनक है। 19 फीसदी लोगों को ऐसे मामलों में सजा हो पाती है जबकि 70-80 के दशक में इसकी दर 47 फीसदी थी। अर्से से यह शिकायत आम थी कि दुष्कर्म मामलों में सुनवाई की रतार अदालती कार्यशैली के चलते बरसों से सुस्ती का शिकार बनती आ रही है और यह तारीख पर तारीख का सिलसिला पैसों के बलबूते प्रभावशाली चलाते रहते हैं। ऐसे में जमानत की गुंजाइश भी बन जाती है। यूपी में जिस उन्नाव रेप पीडि़ता को जलाकर मारने की कोशिश हुई थी हालांकि दिल्ली ऐम्स में आखिरकार उसकी सांसें थम गई तो उसके मूल में वो दुष्कर्म का आरोपी था जिसको कुछ महीने जेल में रहने के बाद जमानत मिल गई थी। तो जरूरत ऐसे मामलों में त्वरित सुनवाई की है, इसी के साथ तय सीमा में जांच की भी ताकि अंतिम निर्णय तक पहुंचा जा सके। यही कारण है कि रेप आरोपी प्राय: छूट जाते हैं। इससे ऐसी गिरी मानसिकता वालों को कानून का भय नहीं सताता। जहां तक निर्भया मामले की बात है तो इसमें एक तथ्य यह भी उभरा है कि दोषी अंतिम फैसले को लटकाने के लिए पुनर्विचार याचिका यूरेटिव याचिका और राष्ट्रपति के यहां माफी की अर्जी देते हैं।

इससे इसके क्रियान्वयन में अच्छी-खासी देरी होती है। एक कार्यक्रम में तो राष्ट्रपति ने भी माफीनामे की व्यवस्था के औचित्य पर देश की संसद को विचार करने के लिए कहा था। हालांकि यह उनका अनौपचारिक सुझाव था। पर इसकी भी जरूरत है, निर्भया की माँ ने इसकी वजह से फैसले के अमल में देरी को लेकर अफ सोस जताया था। पर फांसी की सजा के ऐलान से एक बड़ा तबका उम्मीद जता रहा है कि ऐसे मामलों में दण्ड देने का यही तरीका कारगर हो सकता है लेकिन एक तबका ऐसा भी है जो इसे अंतिम विकल्प नहीं मानता। ऐसे लोगों का तर्क है कि ऐसे जघन्य अपराध करने वालों को तिल-तिल पश्चाताप की आग में जलने के लिए ताउम्र कैद की सजा दी जानी चाहिए। इससे धीरे-धीरे उसका मनोविकार दूर होगा और इसका भी असर समाज में दिखेगा। दुष्कर्म को अंजाम देने से पहले व्यक्ति कई बार सोचेगा। सभ्य समाज में इसकी अपेक्षा तो होती है लेकिन कुछ मामलों में कैपिटल पनिशमेंट एकमात्र विकल्प रह जाता है। निर्भया का मामला कुछ ऐसा ही था। बहरहाल, दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को एक पैरामेडिकल छात्रा से हुई दरिंदगी के इंसाफ का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

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