दुख तो आखिर दुख ही होता है!

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जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आत्मघाती आतंकवादी विस्फोट में देश के जवान शहीद हो गये। यह देश के लिये बड़े दुखद बात है। यह एक ऐसी घटना है जिससे फिर आतंकवाद अपने फन उभार रहा है। पूरा देश इससे शोकाकुल है। परंतु अनेकता में एकता हमारे रग-रग में भरी पड़ी है हम हर दुख-दर्द में साथ-साथ हैं। तभी भारत की संस्कृति दुनिया में अपना एक अलग स्थान रखती है। पूरा देश इस समय गमगीन महौल में है। परंतु हमारे देश की चरमराती राजनीतिक पखडंडियों से तो यही मालूम होता है कि जो शहीद हमारे देश के लिए न्यौछावर हुए हैं उनकी चिताओं पर बेतरतीब कुछ राजनीतिक लोगों ने इन पर भी अपनी रोटियां सेकना प्रारंभ कर दिया है। शायद उन्हें यह नहीं मालूम कि यदि पड़ोसी के घर में आग लगी हो तो धूंआ पहले आसपस के घरों में जाता है यानी पड़ोस में रहने वाले पड़ोसी के घर में आग लगने का खतरा अधिक रहता है।

आज हमारा देश गमगीन महौल में है। जिन परिवारों के लाल शहीद हुए हैं जरा उनके परिवारों से पूछिये! उनका क्या हाल है? किसी का बेटा चला गया, तो किसी का बाप, किसी का भाई, तो किसी का पति। इन सबकी भरपाई दुनिया की शक्ति नहीं कर सकती। परंतु भरपाई के नाम पर यहां पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकी जाने लगी हैं। क्योंकि देश की शर्मशार होती राजनीति का यह बेढंगा कारनामा है। जवान शहीदों के परिवार के लिये जहां सरकार ने सहायतार्थ कुछ धनराशि देने का भरोसा दिलाया तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक तथा देश के नागरिक भी सहायता करने में पीछे नहीं हैं। हम चाहें कितना भी कर लें परंतु हम उनकी भरपाई नहीं कर सकते।

यह बड़ा सोच-विचार करने वाला प्रश्र है कि हमारी सरकारें ऐसे मसलों पर कोई ठोस विचार नहीं करती क्योंकि भारतीयों को भूलने की बीमारी हो गई है। हॉं, क्योंकि जैसे अभी-अभी पुलवामा में आत्मघाती आतंकवादी घटना में देश के पचास के लगभग जवान शहीद हो गये। इस घटना से जहां पूरा देश गुस्से में है तो दूसरी ओर सरकारों ने शहीद परिवारों के लिये सहायतार्थ राशि तथा उनके परिवार वालों को सरकारी नौकरी मिलेगी। यह बहुत अच्छी बात है। परंतु धीरे-धीरे कोई इससे बड़ी घटना होने का हम सब भारतवासी इंतजार करते हैं और पुरानी घटना के बारे में भूल जाते हैं जबकि हम सबको मिलकर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इस बात पर कोई ठोस उपाय ढूंढना चाहिए। उपाय ढूंढते कोई नई घटना देश में घट जाती है और हमारा रहनुमा हमारा ध्यान उस ओर भटका देते हैं क्योंकि देश की जनता बहुत भोली-भाली है। उसे तो कैसे ही किसी भी तरफ मोड़ा जा सकता है। यह कहना बिल्कुल सच होगा कि यदि हमने पब्लिक के कार्य ठीक प्रकार से कर दिये तो फिर उन रहनुमाओं को कौन पूछेगा।

       सुदेश वर्मा

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