फारस की खाड़ी में पिछले कुछ दिनों से वैसे ही भयानक दृश्य दिखाई पड़ रहे हैं, जैसे 1962 में क्यूबा के समुद्रतट पर दिखाई पड़ रहे थे। जैसे अमेरिका ने क्यूबा पर हमले की तैयारी कर ली थी, वैसे ही डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका ने ईरान पर हमले की तैयारी कर रखी है। उस समय सोवियत संघ यदि अमेरिका के मुकाबले खम नहीं फटकारता तो क्यूबा धराशायी हो जाता लेकिन आज न तो शीतयुद्ध का माहौल है और न ही अमेरिका के मुकाबले कोई सोवियत संघ-जैसी महाशक्ति है।
इसीलिए डर लगता है कि ट्रंप-जैसा तुनुकमिजाज राष्ट्रपति कहीं ईरान पर बम-वर्षा न कर बैठे। ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु-समझौते को रद्द कर दिया है और जिन राष्ट्रों ने उस समझौते को संपन्न करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी थी, उनकी राय को दरकिनार करके वे अपने वाली चला रहे हैं। ट्रंप का यह संदेह कुछ हद तक सही हो सकता है कि ईरान परमाणु-समझौते में यह वायदा करने के बावजूद कि वह परमाणु बम नहीं बनाएगा, वह छुप-छुपकर बम बना सकता है।
लेकिन इस संभावना को रोकने के कई कानूनी तरीके हैं। उन्हें अपनाने की बजाय ट्रंप ने गीदड़ भभकियों और ब्लेकमेल का रास्ता अपना रखा है। पहले उन्होंने ईरान पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए और फिर भारत-जैसे राष्ट्रों पर दबाव डालकर उन्होंने ईरानी तेल की खरीददारी रुकवा दी है। अब ईरान पर ड्रोन विमान उड़ाकर और फारस की खाड़ी में उधम मचाकर वे इस राष्ट्र के घुटने टिकवाना चाहते हैं लेकिन वे भूल गए कि यह ईरान अब शाहंशाह का नहीं, आयतुल्लाह खुमैनी का ईरान है, जिसने कभी तेहरान के अमेरिकी राजदूतावास को एक जेलखाने में तब्दील कर दिया था।
इस बार अमेरिकी ड्रोन जहाज को गिराकर ईरान ने ट्रंप को यह बता दिया है कि वे ईरान को ब्लेकमेल नहीं कर सकते। ट्रंप का यह कहना कि अमेरिकी सेना ईरान पर हमला बोलती, उसके दस मिनिट पहले उन्होंने उसे इसलिए रोक दिया कि उस हमले से 150 ईरानियों की मौत हो जाती। यह बात बहुत ही हास्यास्पद है। क्या ट्रंप सचमुच इतने दयालु हैं ? क्या अमेरिका का चित्त इतना अहिंसक है ?
अमेरिकी संस्कृति तो हिंसा की मूर्तिमंत स्वरुप है। अमेरिका की स्थापना का मूल ही हिंसा में है। ट्रंप को चाहिए कि वे अपनी दादागीरी छोड़ें, अपने बड़बोलेपन पर लगाम लगाएं, अपने यूरोपीय साथी राष्ट्रों की सुनें और ईरान से सार्थक संवाद कायम करें।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…