प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने पिछले संबोधन में कहा था कि जान और जहान दोनों की चिंता करनी है। उस बात को एक हफ्ते से ज्यादा हो गए। सरकार कोरोना वायरस से लड़ाई में जान की तो थोड़ी बहुत चिंता करती दिख रही है पर जहान की गंभीर चिंता कहीं नहीं दिख रही है। चिंता के नाम पर सरकार ने कुछ आर्थिक गतिविधियों को मंजूरी दे दी है। पर यह नहीं कहा जा सकता है कि इससे लोगों का जहान कितना बचेगा हां, यह जरूर है कि जान पर खतरा और बढ़ जाएगा। 20 अप्रैल को लॉकडाउन में दी गई पहली छूट के बाद जिस तरह सड़कों पर भीड़ दिखी है, जैसे दिल्ली-उत्तर प्रदेश की सीमा पर जाम लगा और जैसे केंद्र सरकार के दफ्तरों में बड़े अधिकारियों तक को अपनी गाड़ियों की पार्किंग खोजने के लिए मशक्कत करने की खबरें आईं, उससे यह चिंता हो रही है कि आर्थिक गतिविधियों में दी गई यह मामूली सी छूट लोगों की जान को ज्यादा जोखिम में डाल सकती है।
सरकार को अपने नागरिकों की जान और जहान की चिंता ऐसे नहीं करनी है, बल्कि वैसे करनी है, जैसे दुनिया के दूसरे सभ्य और लोकतांत्रिक देश कर रहे हैं। अमेरिका ने अपने देश में 50 लाख रुपए सालाना से कम कमाने वाले हर आदमी के खाते में एक लाख रुपए डाले हैं। इसके लिए उसने 151 लाख करोड़ रुपए का राहत पैकेज घोषित किया। मेडिकल सुविधाओं, कोरोना की जांच आदि पर हो रहे खर्च इससे अलग हैं। अमेरिका ने अपने नागरिकों की जान और जहान की रक्षा के लिए अपनी जीडीपी का दस फीसदी खर्च करने की घोषणा कर दी है और आगे पांच फीसदी और खर्च किया जा सकता है। यूरोपीय संघ ने जीडीपी के पांच फीसदी के बराबर खर्च का ऐलान किया है। जापान तो अपनी जीडीपी का 20 फीसदी खर्च करने की तैयारी कर रहा है। इसके बरक्स भारत का राहत पैकेज जीडीपी के एक फीसदी के बराबर है और उसमें भी कई दूसरे मद के पैसे जोड़ दिए गए हैं। यानी प्रभावी रूप से भारत का पैकेज जीडीपी के आधा फीसदी का है।
इसी तरह भारतीय रिजर्व बैंक ने लोगों को राहत देने के लिए जो घोषणाएं की हैं वह असल में लोगों को कर्ज के जाल में फंसाने और बैंकों को पैसा कमाने का रास्ता देने के उपाय हैं। उनसे आम आदमी को किसी किस्म की आर्थिक राहत नहीं मिल रही है। सरकार अगर सचमुच लोगों की जान और उनका जहान दोनों बचाना चाहती है तो वह तत्काल ऐसे उपाय करे, जिससे लोगों के हाथ में पैसा पहुंचे। यह काम बैंकों का रिवर्स रेपो रेट घटाने से नहीं होगा, बल्कि सीधे लोगों के खाते में रुपए डालने से होगा। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली कांग्रेस की सलाहकार समिति ने लोगों के खाते में साढ़े सात हजार रुपए डालने का सुझाव दिया है। सरकार को इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाने की बजाय तत्काल इस पर अमल करना चाहिए।
सरकार जन धन खातों में पांच सौ रुपए डाल रही है वह रकम किसी भी स्तर पर एक महीने के खर्च के लिए पर्याप्त नहीं है। अगर सरकार सचमुच अपने नागरिकों की मदद करना चाहती है और यह भी चाहती है कि कोरोना के संकट की वजह से देश की आर्थिकी का भट्ठा न बैठे तो उसे गरीब, निम्न मध्य वर्ग और गैर वेतन भोगी वर्ग के लोगों के खातों में तत्काल पांच से सात हजार रुपए डालने चाहिए। सरकार किसानों के खातों में जो दो हजार रुपए डाल रही है उसे भी बढ़ाना चाहिए और सरकार के एक अत्यंत वरिष्ठ मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस में जिन आठ करोड़ लोगों को स्वरोजगार देने का दावा किया था उन्हें भी खोज कर उनके खाते में ये पैसे डालने चाहिए। सरकार जन धन खातों की बजाय मनरेगा मजदूरों के प्रमाणित खातों में पैसे डाले तो बेहतर होगा क्योंकि जन धन खातों में ज्यादातर का वेरीफिकेशन नहीं हुआ है, जिनमें से काफी नोटबंदी के समय काले धन को ठिकाने लगाने के लिए खोले गए थे।
सरकार यह पैसा लोगों के खाते में डालेगी तो वह अंततः घूम कर बाजार में आएगा। इससे सरकार को आर्थिक विकास दर को ठीक रखने में मामूली सी ही सही पर मदद मिलेगी। लेकिन इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि आम लोगों का जीवन सुरक्षित होगा और तब वे खुद भी अपने जहान के बारे में सोच सकेंगे। इसके अलावा सरकार लोगों को कर्ज की किश्तों पर मोराटोरियम देने के साथ साथ ब्याज में सवेंशन दे या पूरा ब्याज माफ करे। ब्याज की रकम सरकार को बैंकों को देनी चाहिए, तभी लोगों को राहत मिलेगी, नहीं तो कर्ज का दुष्चक्र उनके लिए और भारी हो जाएगा।
ऐसा लग रहा है कि सरकार ऐसे संकट के समय भी वित्तीय व राजकोषीय घाटे की चिंता में है या अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की चिंता कर रही है। इस समय ऐसी चिंताओं से सरकार को ऊपर उठना होगा। अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान आदि देशों से सीख लेकर अपने खजाने का मुंह खोलना चाहिए। सरकार को छोटे व मझोले उद्योगों के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध करा कर उनका काम शुरू कराना चाहिए। इससे लोगों को काम मिलेगा और छोटी निर्माण इकाइयां भी स्थापित होंगी। यह कोरोना संकट के बाद भी आर्थिकी की दशा सुधारने में मददगार होगा। सरकार को एक और काम तत्काल करना चाहिए। जितने सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों के पास निजी कंपनियों का बकाया है, चाहे वह किसी तरह का बकाया हो, उसका भुगतान तत्काल सुनिश्चित कराना चाहिए। इससे निजी कंपनियों के पास तरलता बढ़ेगी। अगर सरकार ने ऐसा नहीं किया तो सिर्फ उसकी अपील सुन कर निजी कंपनियां या उद्यमी अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन के पीरियड का वेतन तो नहीं ही दे पाएंगी, बाद में भी वेतन देने के लायक नहीं रहेंगी। पंजाब और हरियाणा की कंपनियों ने सरकार की अपील ठुकरानी शुरू भी कर दी है।
अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है ये उनके निजी विचार हैं)