अयोध्या मामले में सुप्रीनम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आखिकार काफी माथापचची के बाद जमीयत ने साफ कर दिया है कि वो पुनर्विचार याचिका दाखिल करेगा। यह फैसला साम्प्रदायिक सद्भाव की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है। इससे पहले जरूर जमीयत के अरशद मदनी गुट ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हां में हां मिलाते हुए फैसले के खिलाफ कोर्ट जाने की बात कही थी हालांकि यह भी पहले से तय माना जा रहा था कि इस तरह की पुनर्विचार याचिकाएं ज्यादातर खारिज हो जाती हैं। बहरहाल, देर से सही अच्छी पहल है। अब बोर्ड खुद तो पक्षकार नहीं है लेकिन बजिद हो तो जरूर कोर्ट का रूख कर सकता है। इसकी बुनियाद तो फैसले के तत्काल बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से मुकदमा लड़ रहे जफरयाब जिलानी की असंतोष वाले बयान पर पड़ गई थी। इसे बोर्ड के प्रभावशाली मेह्यबर असुदुद्दीन ओवैसी के बयान से और मजबूती मिली। उनका बयान तो अपने तबके को एक बार फिर उन्माद की दुनिया में धकेलने जैसा था। शरिया का हवाला देते हुए मस्जिद के लिए जमीन ना लेने का सुझाव दिया गया था।
इसी के बाद से उत्तर अयोध्या विवाद की शुरू आत हो गई। लेकिन पक्षकार रहे इकबाल अंसारी ने बार-बार ये साफ किया कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट का फैसला मंजूर है और अब अयोध्या सहित पूरे देश देश को विकास के कार्यों में जुटना चाहिए। खून बहुत बह चुका। नई पीढ़ी को मोहब्बत और भरोसे के साथ आगे बढऩे का नया माहौल देने की जरूरत है। अच्छा यह भी रहा कि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी पुनर्विचार याचिका ना दाखिल करने की बात दोहराई। यकीनन देश को इसी समझदारी के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है। दशकों के विवाद के चलते जरूर हिंदू-मुस्लिम दोनों पक्षों के कट्टर नेताओं ने अपनी रोटियां सेकीं। करोड़ों-अरबों रूपयों का चंदे के तौर पर आमद भी हुआ। सेकुलर और गैर सेकुलर सियासत का अयोध्या ऐसा केन्द्र बन गया कि उसे भी हर तरफ से उपेक्षा का सामना करना पड़ा। अब, जब सबसे बड़ी अदालत ने दशकों के लम्बित मामले का अत्यंत संतुलित ढंग से निपटारा कर दिया तब उसके पीछे की मंशा को समझने की जरूरत है।
राम देश की सांस्कृतिक चेतन धारा का मूल स्वर हैं। जीवन से लेकर मरण तक इस नाम विशेष की महिमा है, इसे लोक स्वीकृति भी है। इसलिए भी लोक मानस में सदियों से ध्वनित तथ्य को आखिर कब तक बिसराया जाता रहता। इसके अलावा प्रामाणिक तथ्य भी मुस्लिम पक्ष की तरफ से नहीं दिए जा सके। जो दिए गये वो अपर्याप्त थे। पहला दावा ही तब खारिज हो गया जब पता चला कि मस्जिद खाली जमीन पर तामीर नहीं हुई थी बल्कि उसके नीचे हिंदू मंदिरों के अवशेष पाये गये। एएसआई की वो रिपोर्ट इस अंतिम निष्कर्ष के सफर में बड़ी काम आई। आस्था से इतर भी मिले तथ्य जिसका अपना इतिहास है, उसे भला कैसे भुलाया जाता? दिलचस्प इसमें यह है कि इस तथ्य से विरोधी पक्ष भी पहले से अवगत रहे हैं लेकिन सियासी और जमाती हितों के चलते मामले को लंबा खींचने की जुगत भिड़ाते रहे हैं, इसका भी इतिहास सर्वविदित है। बहरहाल, जमीयत के फैसले के बाद मुहिम शांत पडऩे की उम्मीद की जा सकती है।