घटी बच्चों के लिखने-पढऩे की क्षमता

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भारत में रोज ही ऐसी खबरें देखने को मिलती हैं, जो देश में फैल रही दुर्दशा का संकेत होती हैं। इनमें कुछ खबरें ऐसी भी हैं, जो सिर्फ वर्तमान ही नहीं, बल्कि भविष्य को भी चिंताजनक बना रही हैं। अगर देश के बच्चों की पढ़ाई और सेहत खराब हो रही हो, तो जाहिर है, उसका असर सिर्फ आज नहीं, बल्कि आने वाले कई दशकों तक पड़ेगा। इसीलिए एक ताजा सर्वेक्षण के नतीजों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश की बागडोर जिन लोगों के हाथ में है भले यह उनके लिए फिक्र की बात ना हो, लेकिन जिन लोगों को सचमुच देश की चिंता है, उन्हें जरूर इस पर गौर करना चाहिए। इस सर्वेक्षण के मुताबिक कोरोना महामारी की वजह से स्कूलों के बंद होने का बच्चों पर बहुत खराब असर पड़ा है। ग्रामीण इलाकों में यह असर और ज्यादा गंभीर है। वहां सिर्फ आठ प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ पा रहे हैं। इन इलाकों में 37 प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई तो ठप ही हो गई है।

ये सर्वे 15 राज्यों में हुआ। यानी एक बिगड़ती स्थिति एक तरह से देशव्यापी स्थिति है। सर्वे में यह भी पाया गया कि इन इलाकों में भी जो परिवार अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे थे, उनमें से एक चौथाई से भी ज्यादा परिवारों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में डाल दिया। ऐसा उन्हें या तो पैसों की दिक्कत की वजह से करना पड़ा या ऑनलाइन शिक्षा ना करा पाने की वजह से। ऑनलाइन शिक्षा का दायरा इतना सीमित होने की मुय वजह कई परिवारों में स्मार्टफोन का ना होना है। ग्रामीण इलाकों में तो पाया गया कि करीब 50 प्रतिशत परिवारों में स्मार्टफोन नहीं थे। जहां स्मार्टफोन थे भी, उन ग्रामीण इलाकों में भी सिर्फ 15 प्रतिशत बच्चे नियमित ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए, योंकि उन फोनों का इस्तेमाल घर के बड़े करते हैं। शहरी इलाकों में स्थिति चिंताजनक ही है। यानी कुल मिला कर इस स्थिति का असर बच्चों के लिखने और पढऩे की क्षमता पर भी पड़ा है।

आम तौर पर हर जगह अभिभावकों को लगता है कि इस अवधि में उनके बच्चों की लिखने और पढऩे की क्षमता में गिरावट आई है। अब मुद्दा यह है कि जो पीढ़ी अब तैयार हो रही है, वह किस तरह के भारत का निर्माण करेगी? केवल भारत में पढ़ाई पर ही नहीं,कोरोना महामारी ने दुनिया भर में चुनौतियां पैदा की हैं, लेकिन गरीब और विकासशील देशों के लोग अधिक मुसीबत में हैं। जाहिर है, वहां हेल्थ केयर और आय की सुरक्षा के इंतजाम इस वत बेहद जरूरी हो गए हैं। भारत में भी इसकी जरूरत शिद्दत से महसूस हुई है। लेकिन इस दिशा में कोई प्रयास हुआ है, इसके कोई संकेत नहीं हैं। भारत फिलहाल अपने ‘हिंदू गौरव’ को पुनर्जीवित करने में जुटा हुआ है। बहरहाल, जिन्हें आम जन की वास्तविक चिंता हो, उन्हें अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की ताजा रिपोर्ट पर जरूर गौर करना चाहिए।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की आधा से ज्यादा आबादी के पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है। 2020 में दुनिया के सिर्फ 47 प्रतिशत लोगों की कम से कम एक सामाजिक सुरक्षा उपाय तक प्रभावी पहुंच बन पाई थी। बाकी 53 प्रतिशत लोग यानी करीब 4.1 अरब लोगों के पास कोई बचाव नहीं था। आईएलओ ने अपनी इस रिपोर्ट में पूरी दुनिया की सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में हाल के बदलावों और सुधारों का आकलन किया गया है। दुनिया के अधिकांश बच्चों के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है। दुनिया में चार में से सिर्फ एक बच्चे को एक सामाजिक सुरक्षा लाभ मिल पाता है। गंभीर विकलांगता वाले तीन में से सिर्फ एक व्यक्ति को विकलांगता से जुड़े लाभ मिल पाते हैं और नौकरी गंवाने वाले पांच में से सिर्फ एक व्यति को ही सामाजिक सुरक्षा मिल पाती है। तो हालत गंभीर है। आईएलओ इस तरफ ध्यान खींचने के लिए बधाई का पात्र है। हालांकि इससे सूरत बदलेगी, इसकी कोई उम्मीद नहीं है।

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