गीता सार

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सुख -दु:ख, लाभ -हानि और जीत-हार की चिंता ना करके मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार कर्तव्य, कर्म करना चाहिए। ऐसे भाव से कर्म करने पर मनुष्य को पाप नहीं लगता।

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