गाय पर सियासत

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तीन राज्यों हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र में आने वाले दिनों में विधानसभा चुनावों को लेकर सरगर्मी बढ गई है। शायद यही वजह है कि सियासतदानों को गाय के नाम पर अपने-अपने ढंग से वोटों के ध्रुवीकरण का संभावित मंजर साफ-साफ नजर आने लगा है। बुधवार को यूपी के मथुरा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक कार्यक्रम में थे। उन्होंने कहा कि ओम और गाय का नाम आते ही लोगों की सियासत शुरू हो जाती है। उन्हें लगता है कि सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में पहुंचा दिए गए हैं। निश्चित तौर पर उनकी टिप्पणी का एक मतलब तो होता है, जिसकी चर्चा होती है। लेकिन दूसरा मतलब शायद उससे भी व्यापक और मारक होता है। जिसकी अनुगूंज ने अतीत में भी विपक्षियों को चुनावी दौड़ में कहीं पीछे छोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शासन और कब्रिस्तान के जुमले ने 2017 में यूपी की रणनीति में विपक्षियों का जो हश्र किया था उसकी टीस विरोधियों को अब भी हैरान-परेशान करती है।

हैरत इस पर है कि अतीत के कड़वे अनुभवों के बावजूद विपक्ष सीख लेन की बजाय उसी ट्रैप में एक बार फिर फंसता दिखाई दे रहा है। असुद्दीन ओवैसी से लेकर कांग्रेस और वाम दलों के नेताओं ने पीएम के बयान को लेकर निशाना साधा, उससे दरअसल उस मंशा की अपने आप पूर्ति हो जाती है, जिसके लिए कहा गया था। यह सही है कि देश में अर्थव्यवस्था की सेहत चिंताजनक स्थिति में है ओर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि तत्काल इस दिशा में किसी चमत्कार की आशा है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि कोई रास्ता नहीं बचा है। विपरीत परिस्थितियों में सावधानीपूर्वक कदम उठाए जाने की अपेक्षा होती है, इस दिशा में सरकार की तरफ से क्या हो रहा है, आगे क्या होने वाला है उस पर विपक्ष की सतर्क निगाह होनी चाहिए ताकि सामान्य स्थितियों की तरफ लौटा जा सके। ऐसे समय में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ताधारी दल की बात तो समझ में आती है, लेकिन विपक्ष भी गैरजरूरी एजेंडे को आगे बढ़ाता दिखे तो निराशा होती है।

पीएम के बयान को विपक्ष के नेताओं ने जिस तरह लपका है उससे तो यही धारणा बनती है कि उसे भी इसी में अपने लिए भी उम्मीद की किरण दिखाई देती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चुनाव के दिनों में जनता चाहती है कि उसके मुद्दे राजनीतिक विमर्श बनें। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं। सत्तापक्ष अपनी नाकामियों को छुपाने का भरसक प्रयास करे। यह चुनाव में उसकी मजबूरी भी हो सकती है। लेकिन विरोधी दलों को भी जनता के सवालों संग सियासी लडऩा रास नहीं आता। यही वजह है कि जमीनी मुद्दों के होते हुए भी गैरजरूरी मुद्दों के इर्द-गिर्द चुनाव हो जाता है और इस तरह लोक तंत्र में उम्मीद का अवसर ठगा रह जाता है। जैसे-जैसे चुनाव के दिन करीब आते जा रहे हैं। वैसे-वैसे यह सियासी बयानवीरों की धमक भी बढ़ती जाती है। इसमें दो राय नहीं। विसंगति बस इतनी है कि जिंदगी की मूलभूत जरूरतों को लेकर बढ़ रही चुनौतियों को चुनाव के दिनों में भी भाव नहीं मिलता तो आम दिनों में जनसरोकारों के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। वैश्विक मंदी के बीच देश के भीतर आर्थिक सुधारों के कारण फौरी तौर पर जो बुनियादी सवाल उठ रहे हैं, उसे संबोधित किए जाने की आवश्यक ता है। सत्ताधारी दल से तो अपने ऐसे ही कदमों के बारे में चर्चा की उम्मीद होती है पर आर्थिक सवालों पर सीधी चुप्पी तो सवालों को ही जन्म देती है, इस यथार्थ को भी समझने की जरूरत है।

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