कौन फेल : बच्चे, स्कूल या शिक्षा नीति?

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अगर शत-प्रतिशत अंक लाना अब मील का पत्थर नहीं रह गया है तो फिर देखना यही है कि आसमान को छूना मुहावरा कितने बरस टिकेगा? हमारी बेटियां हंसिका शुक्ला, करिश्मा अरोड़ा अगर 499 अंक ला रही हैं तो फिर इससे बड़ा एचीवमेंट और क्या हो सकता है? ये पल व ख्याति उनकी मेहनत व प्रतिभा की वजह से है।।

सीबीएसई 12 वी के नतीजे आ चुके हैं। ठीक पिछले बसर जैसे। आश्चर्यजनक विस्मयकारी या फिर डिक्शनरी में जो शब्द इन अंकों के वजन को सही-सही तौल सके वो तलाशते रहिए। अगर शत-प्रतिशत अंक लाना अब मील का पत्थर नहीं रह गया है तो फिर देखना यही है कि आसमान को छूना मुहावरा कितने बरस टिकेगा? हमारी बेटियां हंसिका शुक्ला, करिश्मा अरोड़ा अगर 499 अंक ला रही हैं तो फिर इससे बड़ा एचीवमेंट और क्या हो सकता है? ये पल व ख्याति उनकी मेहनत व प्रतिभा की वजह से है। निसंदेह 500 में से 1-2-3 नंबर कम आने पर भी अगर बच्चों को मलाल रह जाए तो मौजूदा वक्त को अद्भुत प्रतिभाओं की पैदावार का दौर ही कहा जाएगा। 12 लाख में से लगभग एक लाख बच्चे ऐसे हैं जिनके 90 फीसदी ले ऊपर नंबर है। ज्यादातर निजी स्कूलों का रिजल्ट सौ फीसद है। तो फिर इनसे अच्छा कौन? सबकी खुशी में खुश हम भी हैं और शुभकामनाएं भी लेकिन हैरतंगेज नतीजों की वजह से मन में कुछ खटके सवालों को जन्म दे रहे हैं।

ये नतीजे अगर इतने बेहतर है और हर कोई गुणगान कर रहा है तो फिर लाख टके का सवाल यही है कि जिस सीबीएसई में अंको की बाढ़ आई हुई हो वहां दो लाख बच्चों की कापियां अंको के सूखे की चपेट में कैसे आ गई? क्या केवल ये बच्चे फेल हुए हैं या फिर स्कूल भी खुद को फेल मानते है? कैसे मान लिया जाए कि हमारा एजुकेशन सिस्टम फेल नहीं हुआ? दो लाख बच्चों को फेल देखकर तो यही लगता है समूचा राष्ट्र ही फेल है। ऐसे में ये सवाल उठाना लाजिमी है कि कहीं अंको के बोझ के नीचे बचपन तो नहीं खो रहा है? प्रतिभा नापने के लिए अकं पैमाना हो लेकिन क्या केवल अंको को आधार पर ही बच्चों को परखा जाना चाहिए? आठवीं तक प्रतिभा परखने को अगर कंन्टीन्यूअस, कम्प्रेहेसिव इवेल्युशन हमारे सिस्टम में हो तो फिर 10वीं व 12वीं में अंकों के आधार पर विफल होने वाले बच्चो को रोकने के लिए किसी कानून की दरकार क्यों है?

परीक्षाएं भी होगी, ज्यादा अंक पाने की होड़ भी रहेगी। इस अंक जाल में बच्चे उलझेंगे, फिसलेंगे कुछ काटकर खुशी-खुशी दौड़ लगाएंगे, कुछ रह जाएंगे निखट्टु कहलाएंगे, बेटियां हुई तो हाथ पीले करने की जल्दी मच जाएगी। लेकिन कोई भी इस पहलू पर गौर क्यो नहीं करता कि जहां पर अंको का खजाना लूट रहा हो वहां पर फेल होने वाले की संख्या लगातार बढ़ क्यों रही है? स्कूल अगर इतनी पढ़ाई कराते हैं तो फिर दो लाख बच्चे फैले कैसे हो गए? तकरीबन एक लाख को पूरक परीक्षा में क्यो बैठना पड़ रहा है? अगर सरकारी स्कूलों का रिजल्ट घट रहा है तो फिर जिम्मेदार कौन है?

एक अहम सवाल ये भी है कि अगर एक समान शिक्षा की बात मोदी सरकार करती है तो फिर मूल्यांकन का नजरिया सीबीएसई या यूपी समेत बाकी सभी राज्यों का एक समान क्यों नहीं है? सबसे अधिकतम 80-85 फीसद नंबर धारक यूपी बोर्ड के बच्चे भी भला डीयू की मेरिट लिस्ट में कैसे आ सकते है? समान शिक्षा के साथ-साथ मूल्यांकन का तरीका भी समान हो तभी पता चल पाएगा कि कौन कितने पानी में है? फिलहाल तो अंको की होड़ की अंधी दौड़ है। हंसने से ज्यादा एक-एक अंक खोने का रोना-पीटना मचा है। हम जैसे तो यही कह सकते हैं कि 500 में से 499 अंक- बाप रे, बच्चे हैं या रोबोट?

डीपीएस पंवार

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