कोरोना में जीना और मरना, दोनों मुहाल

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कोरोना का संकट भी क्या गजब का संकट है। इसने लोगों का जीना और मरना, दोनों मुहाल कर दिए हैं। दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुकाबले भारत में कोरोना बहुत वीभत्स नहीं हुआ है लेकिन इन दिनों जिस रफ्तार से वह बढ़ा चला जा रहा है, वह किसी भी सरकार के होश फाख्ता करने के लिए काफी है। पहले माना जा रहा था कि ज्यों ही मई-जून की गर्मी शुरु होगी, कोरोना भारत से भागता नज़र आएगा लेकिन ज्यों-ज्यों गर्मी बढ़ रही है, कोरोना भी उससे आगे दौड़ता चला जा रहा है। दिल्ली और मुंबई- जैसे शहरों में मरीज़ों के लिए बिस्तरों की कमी पड़ रही है और जो लोग जिंदा नहीं रह पाए, उनकी लाशों के अंतिम संस्कार के लिए भी जगह की कमी पड़ रही है। कोरोना की हालत में वे जो लोग घरों या अस्पतालों में कैद किए जाते हैं, वे डरते हैं कि किसी को पता न चल जाए कि वे कोरोना के मरीज़ हैं।

जो जी नहीं पाते उनके घरवाले भी उनके अंतिम क्रिया-कर्म के लिए श्मशान घाट या कब्रिस्तान जाने में भी कतराते हैं। यह हालत देखकर मुझे मिर्जा ग़ालिब का यह शेर याद आता हैः हुए मरके हम जो रुस्वा, हुए क्यों न गर्के-दरिया । ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता। ऐसी बुरी हालत में भी हमारे नेता लोग एक-दूसरे के साथ सहयोग करने की बजाय एक-दूसरे की टांग खींचने में भिड़े हुए हैं। ऐसा लगता है कि उनके दिल में दया कम, सत्ता की भूख ज्यादा है। यही हाल हमारे अस्पतालों का है। इसमें शक नहीं कि ज्यादातर डॉक्टर और नर्सें अपनी जान पर खेलकर लोगों की सेवा कर रहे हैं लेकिन कुछेक अपवादों को छोड़कर सारे अस्पताल इस संकट में भी पैसा बनाने में लगे हुए हैं।

सिर्फ जांच के लिए एक गरीब आदमी को अपनी महिने भर की तनखा दे देनी पड़ती है और अगर उसे भर्ती होना पड़े तो इलाज खर्च की राशि सुनकर ही उसका दम निकल जाएगा। मैं तो कहता हूं कि प्रत्येक कोरोना मरीज़ का इलाज मुफ्त होना चाहिए। दुनिया में सबसे ज्यादा और जल्दी ठीक होनेवाले मरीज भारत में ही हैं। गंभीर मरीज़ों की संख्या तो कम ही है। उन पर खर्च कितना होगा ? 20 लाख करोड़ नहीं, मुश्किल से एकाध लाख करोड़ रु. ! सरकार यह हिम्मत क्यों नहीं करती ? इतना तो कर ही सकती है कि इलाज़ के नाम पर चल रही लूटपाट वह तुरंत बंद करवा दे। जांच, दवा, कमरा और पूरे इलाज की राशि पर नियंत्रण लगा दे। राशि तय कर दे। गैर-सरकारी अस्पतालों का दम नहीं घोटना है लेकिन वे भी मरीज़ों का दम न घोटें, यह देखना जरुरी है।

डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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