‘नहीं तोक्या?’ सुलेखा ने तुनक कर पूछा। “नहीं तो… नहीं तो तुम्हें जंगल….। जंगल नहीं तो मायके छोड़ आऊँगा।
अभी कोई और बात होती कि एक जीप बृजमोहन के घर के आगे रुकी। सुलेखा ने खिड़की से देखा। वह बोलीं, “कोई आया है हमारे घर।”
दो आदमी आथ में एक पर्चा पढ़ते हुए घर के दरवाजे की तरफ बढ़े। सुलेखा और बृजमोहन भी सोफे से उठकर उनसे मिलने चले। सबकी मुलाकात दरवाजे पर ही हो गई। आगन्तुकों ने पूछा, “बृजमोहन जी यहीं रहते हैं?”
“हां कहिये।”
“मिलना था उनसे।”
“मैं ही बृजमोहन हूं। बताइये आप कौन हैं?” बृमोहन ने पूछा।
आगन्तुक बोले, “आप हमें नहीं जानते। पर ये बताएं संजय आपका…”
बीच में ही बृजमोहन बोल पड़े, “बेटा है मेरा। क्यों पूछ रहे हैं आप? क्या बात है?”
सुलेखा व बृजमोहन थोड़ा चकित थे कि कि आखिर बात क्या है। माथे पर चिन्ता का एक बल उभरने की चेष्टा कर रहा था। तभी आगन्तुक बोले, “नहीं परेशान न हों। कोई चिन्ता की बात नहीं है। उसका एक्सीडैन्ट हो गया था। वह देशबन्धु अस्पताल में है।”
सुलेखा चौंक पड़ीं, “एक्सीडैन्ट !”
“हाँ, थोड़ी-सी चोट है। घबराएं नहीं और वहां जाकर उससे मिल लें। डॉक्टर साहब शायद अभी छुट्टी कर देंगे।”
बृजमोहन व सुलेखा बहुत चिन्तित हो गए। लेकिन बृजमोहन जानते थे कि चिन्ता करने से लाभ तो होने वाला है नहीं, अतः अपने को काबू में किए हुए थे। सुलेखा तो रो पड़ीं, “मेरा बिट्टू…।” बृजमोहन का हाथ पकड़कर बोलीं, “खड़े क्यों हैं, अब चलिये।” चलने से पहले बृजमोहन जानना चाहते थे कि वे लोग कैन हैं। कहीं कुछ और बात न हो। उन्होंने आगन्तुकों से प्रश्न किया, “भाई साहब, आप दयावान कौन हैं जो हमें सूचना देने आए हैं?”
“मेरा नाम अशोक है। मेरी स्कूटर की एजेन्सी है। शिवा मार्ग पर शोरूम है। मेरी बच्ची का अपैन्डिक्स का ऑप्रेशन हुआ है। वह भी देशबन्धु अस्पातल में है। मैंने जब सुना कि संजय का एक्सीडैन्ट हो गया है और साथ कोई नहीं है तो आपको बुलाने चला आया।”
बृजमोहन और सुलेखा एक मिनट भी खोना नहीं चाहते थे। स्कूटर से जाने में तो समय लगेगा। इन्हीं के साथ चलते हैं। वे बोले, “बहुत धन्यवाद, भाई साहब! बस दो मिनट में आए।”
साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)
लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण
(अभी जारी है… आगे कल पढ़े)