कांग्रेस को पहले धारणा स्तर पर लड़ना होगा। मौजूदा नैरेटिव को बदलने की पहल करनी होगी। उसके बाद ही उसका कोई एजेंडा काम आ सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि केंद्र सरकार अपने जनादेश का खतरनाक तरीके से इस्तेमाल कर रही है और कांग्रेस के संकल्प व संयम की परीक्षा ले रही है। सवाल है कि कांग्रेस यह परीक्षा क्यों दे रही है? उसकी क्या बाध्यता है कि वह सिर्फ सरकार के तय किए एजेंडे पर प्रतिक्रिया देने और अपना बचाव करने में लगी है? वह क्यों नहीं ऐसी पहल कर रही है कि मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए बनाए गए लोकप्रिय विमर्श को बदला जाए?
ध्यान रहे कांग्रेस या किसी दूसरी विपक्षी पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि उन्हें बहुत कम सीटें मिली हैं और भाजपा को बहुत बड़ा बहुमत मिला है। भारतीय संसद में थोड़े से अपवादों को छोड़ कर विपक्ष हमेशा सिमटा ही रहा है पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि सरकार के सामने विपक्ष की बोलती बंद हो जाए। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि सरकार और सत्तारूढ़ दल ने धारणा के स्तर पर विपक्ष को पराजित किया हुआ है। उसके बारे में यह धारणा बनवाई है कि सारे विपक्षी नेता चोर हैं।
मीडिया, सोशल मीडिया और भाषणों के जरिए पूरे देश में यह बात स्थापित कराई गई है कि विपक्ष के सारे नेता चोर हैं। वे या तो जेल में हैं या जेल जाने वाले हैं। जो जेल में नहीं हैं वे जमानत पर बाहर हैं। यह काम एक पार्टी के तौर पर सिर्फ भाजपा नहीं कर रही है, बल्कि सरकार भी कर रही है। इस प्रचार का नतीजा यह हुआ है कि विपक्ष पूरी तरह से बैकफुट पर है। विपक्षी नेताओं का नैतिक बल कम हुआ है और वे जनता के बीच जाने से घबरा रहे हैं।
सोनिया गांधी चाहती हैं कि कांग्रेस किसी आंदोलनकारी एजेंडे के साथ उतरे। पर सवाल है कि आंदोलनकारी एजेंडा लेकर लोगों के बीच जाएगा कौन? कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं ने अपने जीवन में किसी किस्म का आंदोलन कभी किया ही नहीं है। वे जमीनी संघर्ष और जमीनी राजनीति के दांव पेंच से परिचित नहीं हैं। वे ड्राइंग रूम की राजनीति में माहिर खिलाड़ी हैं और वहां बैठ कर एक दूसरे को निपटाने की रणनीति बेहतर बना सकते हैं। उनसे सड़क पर उतर कर आंदोलन करना संभव नहीं हो पाएगा।
दूसरे, जो बचे हुए नेता हैं उनको लग रहा है कि किसी तरह से भाजपा में शामिल होने का जुगाड़ लग जाए तो सत्ता में हिस्सेदारी मिल जाए। इसलिए भी वे खुल कर सरकार के खिलाफ हमलावर होने की बजाय सरकार के कामकाज में सफलता के बिंदु तलाशने में जुटे हैं ताकि वहां तक का सफर आसान बना सकें। इसके बाद कुछ नेता बचते हैं तो उनको लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि सरकार के खिलाफ ज्यादा सक्रियता दिखाई तो लालू प्रसाद या पी चिदंबरम वाली गति को प्राप्त हों। इसलिए वे भी ट्विट आदि करके अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं।
ऐसे नेताओं की फौज लेकर कांग्रेस या कोई भी दूसरी विपक्षी पार्टी सरकार से कैसे लड़ेगी? सरकार ने उनके बारे में जो धारणा बनवाई है, वे उसका जवाब नहीं दे पा रहे हैं तो अपने किसी एजेंडे पर लोगों की धारणा बनवाने का काम उनसे कैसे होगा? वे तो लोगों को आंखों देखी पर यकीन नहीं दिला पा रहे हैं। भ्रष्टाचार के आरोपी नेता एक एक करके भाजपा में शामिल हो रहे हैं। जिन नेताओं के खिलाफ कांग्रेस की कथित भ्रष्ट सरकार ने मुकदमे कायम किए थे और खुद भाजपा नेताओं ने जिनको चोर कहा था वे भी भाजपा में शामिल हो गए हैं।
पर धारणा की लड़ाई इतनी एकतरफा है कि विपक्ष इस आंखों देखी पर भी लोगों को भरोसा नहीं दिला पा रहा है। विपक्ष को सबसे पहला काम यहीं करना होगा कि उसे लोगों को आंखों देखी पर भरोसा दिलाना होगा। उन्हें बताना होगा कि जो बात बहुत जोर जोर से और बार बार कही जा रही है वह सही नहीं है, बल्कि जिसे लोग भोग रहे हैं वह यथार्थ है, जिसे वे अपनी आंखों से देख रहे हैं और महसूस कर रहे हैं वह सच है। जैसे ही लोग बातों के सम्मोहन से बाहर निकलेंगे और अपने अनुभव पर भरोसा करना शुरू करेंगे, वैसे ही धारणा बदलने लगेगी। फिर आगे की लड़ाई आसान हो जाएगी या कम से कम एकतरफा नहीं रह जाएगी।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं