कब तक दामाद बना रहेगा कश्मीर !

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कश्मीर क्या है, यह समझ पाना आसान नहीं है और कश्मीर की समस्या कैसे सुलझाए यह यक्ष प्रश्न है। साल पहले संविधान के अनुच्छेद 370 को निप्षप्रभावी करते हुए एक साहसी कदम उठाया गया था। लगा यह (नए) समाधान की दिशा में पहला सही क है। लेकिन अब जैसे जैसे साल भर पूरा होने को जा रहा है और हम पीछे मुड़ कर देखें तो पाएंगे कि कश्मीर में नए समाधान का साहस अभी भी कागज है। जमीनी हकीकत उलटे पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा खराब है। संदेह नहीं है कि बदलाव साल भर में नहीं आ जाता है। बदलाव को लेकर रातभर में नजरिया भी नहीं बदल जाता। लेकिन सालभर बाद भी लगातार यह सुनने को मिले कि “कश्मीर हिंदुस्तान का जामतुर है” तो निश्चित ही गहन विचार-मंथन जरूरी हो जाता है। कश्मीर में दामाद को जामतुर कहा जाता है। और तभी से, पुराने वक्त से कश्मीरियों के अवचेतन में यह शब्द बसा हुआ है, हिंदू हों या मुसलमान, दोनों समान रूप से मानते है, कहते है कि कश्मीर भारत का दामाद हैं। हमारी संस्कृति में दामाद का मतलब क्या होता है, यह हम अच्छी तरह से जानते-समझते हैं। मैं इस बात को कभी नहीं समझ पाई कि माता-पिता आखिर क्यों ऐसा सोचते हैं कि उनकी बेटी से शादी करके दामाद न महान काम किया है। वह बहुत ‘सम्मानीय’ है, उसे खुश रखने के लिए हमेशा सब कुछ किया जाता है। उसकी गलतियों को नजरअंदाज करते हुए उसे भरपूर सम्मान दिया जाता है। परिवार में उसके लिए खर्चों में कोई कटौती–कंजूसी नहीं की जाती। इसलिए आप और मेरे जैसे बाहरी के लिए इस प्रसंग को अगर कश्मीर के संदर्भ में रख कर देखें तो देखना होगा कि कश्मीर का हिंदुस्तान का जामतुर होना कितना सही बैठता है? जरा पीछे जाएं और कश्मीर की उन खबरों, विचारों, घटनाओं पर नजर डालें जो हमने देखी, पढ़ी और सुनी हैं।

अलगाववादियों को पनपने दिया गया, धार्मिक प्रोपेगेंड़ा, एजेंडा की खुली छूट मिली हुई थी और हिंदुओं को खदेड़ा जा रहा था व उन्हे वहां से भागने के लिए मजबूर किया जा रहा था, इसलिए कि कश्मीरी मुसलमानों को खुली छूट थी वे चाहे जो करें। कश्मीर के भीतर और बाहर कही भी। उन्हें देश भर में कहीं भी बिना किसी रोक-टोक के जमीन-जायदाद खरीदने की इजाजत मिली हुई थी। वे देशभर में कहीं भी शिक्षा और नौकरियां हासिल कर सकते थे. चाहे सरकारी नौकरी हो या निजी क्षेत्र में। भारत सरकार बिना किसी पूछताछ या दखल के उन्हें पासपोर्ट देती थी, ताकि वे विदेश जाकर अपना ‘सुरक्षित स्वर्ग’ बना सकें। और इस सबके साथ हमने क्या देखा? लगातार उनका बार-बार यह हल्ला करना., चिल्लाना कि भारतीय सेना और सुरक्षाबल उनके साथ बर्बरतापूर्ण बर्ताव कर रहे हैं, अत्याचार कर रहे हैं। हालांकि किसी भी ज्यादती भरी कार्रवाई के लिए कई बार भारतीय सुरक्षाबलों को आड़े हाथों भी लिया गया। कश्मीरियों को इस बात की खुली आजादी मिली कि वे चाहे जो लिखें या बोलें और इतना ही नहीं, इसी के साथ उन्होंने जब चाहा अपने हाथों में पत्थर भी उठाए। जब कश्मीर में चारों ओर आतंकवाद फैला तो उसे कुचलने की कार्रवा हुई लेकिन उसके खिलाफ भी कानफोडूं शौर उठा। केंद्र सरकार ने जब-तब दखल दिया भी, लेकिन वह सिर्फ स्थानीय नेताओं और अलगाववादियों के बूते ही था, जो सिर्फ यह खाली धमकी देते थे कि अगर हमारे घरेलू मामलों में ज्यादा दखल दिया, हमें मजबूर किया तो हम साथ छोड़ देंगे। भारत की भयभीत सरकारे अपने ‘दामाद की मांगों’ के आगे झुकने और उन्हें मानने के अलावा कुछ नहीं कर सकी थी। और ‘शांति’ तमाम छूट, आवभगत के बावजूद कभी जमीन पर नहीं बनी। आप यह तर्क दे सकते हैं कि यह अनुच्छेद 370 के प्रभावी रहने के दौर वाला कश्मीर था।

मतलब पुरानी सरकारें ही जिम्मेदार रही हैं, जिसकी वजह से वहां ऐसी संस्कृति पनपी और राज्य संकटों के बीच झूलता रहा। लेकिन धारा 370 खत्म होने के बाद इस साल में क्या कुछ बदला है? वापिस इस साल की खबरों के लिए पीछे लौटें। हाईवे और ढांचागत निर्माण के लिए आदेश जारी हो चुके हैं, बाहर से निवेश लाने के लिए हरी झंडी दे दी गई है। नौकरशाही में बदलाव किया गया है और ‘बाहरी’ लोगों को भी कश्मीर आकर बसने, जमीन-जायदाद खरीदने, नौकरी और कारोबार करने की इजाजत दे दी गई है। लेकिन रियलिटी में क्या कुछ है? क्या कागजों पर हुए इन आदेशों से कश्मीर में हालात बदले हैं? क्या कोई बुनियादी बदलाव आया है? कश्मीर की नौकरशाही, न्यायपालिका और स्थानीय निकायों में कश्मीरी मुसलमानों का दबदबा जस का तस बरकरार है। स्थानीय अखबारों के पत्रकार अब ऑनलाइन मीडिया के जरिए सरकार के कदमों और कोशिशों के खिलाफ अधिक मुखर होते नजर आ रहे हैं और वे दमन व अत्याचारों की खौफनाक दास्तां तो खैर बता ही रहे है। कश्मीर घाटी के अमीर मुसलमान पहले भी घाटी से दूर रहते थे। इन्होने बाहर सुरक्षित ठिकाने बनाए हुए हैं। पहले से वह रास्ता बनाया हुआ जिसमें भरपूर सुविधाएं, ऐशोआराम और आजादी मिलती रहे। उधर पर्यटक अभी भी कश्मीर से दूर हैं। आतंकियों की घुसपैठ चार गुना बढ़ गई बताते है, उनसे निपटने में राज्य में जिस तरह की कड़ी सुरक्षा हुई है, उससे पर्यटकों का आना संभव ही नहीमं है। घाटी में मुठभेड़ें और आतंकवादियों की मौत रोजमर्रा की बात हो चुकी हैं। कश्मीरी हिंदू आज भी खौफ के साए में जी रहे हैं, उनके मंदिर पहले भी तबाह थे आज भी तबाह है। कश्मीरी पंडित 370 खत्म होने के बाद भी दुविधा में हैं कि घाटी में लौटे या नहीं। उन्हे श्रीनगर का प्रशासन बसने का मौका, मदद देगा या नहीं।

बावजूद इस सबके सरकार ने पहली बार 2020-21 के बजट में जम्मू-कश्मीर के लिए एक लाख करोड़ रुपए का बजट रखा है ताकि राज्य को विकास का मॉडल बनाया जा सके। नए केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लिए भी 5754 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। ‘हिंदुस्तान के जामतुर’ का पैसा और बढ़ा कर खुश किया जा रहा है। इस सबमें भी रत्ती भर घाटी में प्रशासन को नया बनाने, हिंदूओं को लौटाने, मंदिर सजाने आदि का कहीं कोई बजट आवंटन नहीं! हां, मोदी और शाह के वक्त में भी कश्मीर हिंदुस्तान का जामतुर है और बना रहेगा। एक बार किसी ने मुझसे कहा था कि देश में ऐसी और कोई दूसरी जगह नहीं है जहां कश्मीर जैसी आजादी मिली हुई हो। वाकई कश्मीरियों को इसका अहसास नहीं है। लेकिन अगर आप कश्मीर के बारे में जरा गहराई से सोचें, इसकी नैसर्गिक सुंदरता, मन को शांति और शक्ति प्रदान करने वाले इसके आकर्षण को देखें, लोगों से मिलें, तो पाएंगे कि वे तो पहले ही से खुश हैं, अपनी, दामादजी की आजादी में जी रहे हैं। तो फिर सवाल उठता है कि आखिर उन्हें और आजादी की जरूरत क्या है। धारा 370 हटाने के बाद भी दामाद को दामाद बनाए रख कर क्या करना चाह रहे है? क्यों कश्मीर को पहले जैसा ही दामाद बनाए रखना चाहते हैं? क्यों नहीं कश्मीर को देश के दूसरे राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों की तरह समझा जाता और उन्हीं के समान दर्जा दिया जाता?

कश्मीरी मुसलमानों पर ठीक वैसे ही नियम-कानून लागू क्यों नहीं हैं जैसे दिल्ली के मुसलमानों या बंगलौर के हिंदुओं पर लागू होते हैं? नोएडा में रहने वाले कश्मीरी मुसलमान को देख कर यूपी पुलिस क्यों नहीं चौंकती, जबकि ताजा एक हकीकत बताऊं कि लखनपुर सीमा पर एक एसएचओ ने हिंदू पंडित को श्रीनगर का मानने से इंकार करते हुए कहां- “आप कैसे श्रीनगर में रह सकते हो, आपको तो निकाल दिया था।” उसने अपना वोटर आईडी कार्ड में श्रीनगर का लिखा एड्रेस बताया तो अविश्वास के साथ जाने का पास बनाया। सोचे श्रीनगर, घाटी अभी भी बिना हिंदू उपस्थिति, पहचान के है। सही है साल भर में ही कोई बदलाव नहीं आ जाता। साल भर में लोगों का मन और भावनाएं नहीं बदल जातीं। साल भर में नजरिया नहीं बदल सकता। लेकिन जब तक जमातुर को सही मायनों में परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ (हिंदु पंडितों) सही जगह नहीं बताई जाएगी, तो भविष्य में मैं और आप व पूरा देश इसका खामियाजा भुगतेंगा। अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद भी घाटी आगे पांच साल जस की तस रही, उसी बसावट में रही तो आखिर बनेगा क्या?

श्रुति व्यास
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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