एक दिन, आज से 1000 साल बाद जब पुरातत्वविद खुदाई करेंगे तो वे जरूर पूछेंगे कि कैसे अमेरिका जैसी महाशक्ति ने मध्यपूर्व को खुद की तरह बहुलवाद अपनाने वाला बनाया, जबकि खुद मध्यपूर्व जैसा बन गया और अपनी राजनीति में कबायली तौर-तरीके अपना लिए? मध्यपूर्व वाले अपने बड़े ‘कबीलों’ को ‘शिया’ और ‘सुन्नी’ कहते होंगे और अमेरिकी कबीलों को ‘डेमोक्रेट्स’ और ‘रिपब्लिकन्स’ कह सकते हैं। लेकिन दोनों ही लगातार ढर्रे पर चलने वाले, ‘हम बनाम वे’ सोच वाले लगने लगे।
चरम रिपब्लिकन कबायलीवाद तेजी से फैल रहा है, क्योंकि रिपब्लिकन्स में बड़े पैमाने पर ऐसे श्वेत ईसाई हावी हो गए, जिन्हें डर था कि अमेरिका की शक्ति संरचना में उनका दबदबा बदलते सामाजिक मानदंडों, प्रवासन और वैश्वीकरण से खत्म हो रहा है। यह संकेत देने के लिए, उन्होंने डोनाल्ड ट्रम्प को चुन लिया, जिन्होंने उत्साहपूर्वक उनके डर को आवाज दी। कभी सिद्धांतवादी रहे कई रिपबल्किन इसी धारा में बहने लगे और वही सोच अपना ली जो अफगानिस्तान तथा अरब दुनिया की कबायली राजनीति में हावी है।
यानी ‘दूसरा’ या ‘अन्य’ दुश्मन है, साथी नागरिक नहीं और केवल दो ही विकल्प हैं ‘शासन करो या मर जाओ।’ पुरात्तविद यह भी देखेंगे कि डेमोक्रेट्स का अपना कबायली पागलपन था। जैसे 21 वीं सदी के अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रगतिवादियों के कठोर समूह। खासतौर पर ऐसे सबूत मिलेंगे कि प्रोफेसरों, प्रशासनिक अधिकारियों और छात्रों को राजनीति, नस्ल, लिंग या लैंगिक पहचान पर रूढ़ीवादी विचार व्यक्त करने पर निकाल दिया जाता था। वामपंथी कबायली की महामारी ने दक्षिणपंथी कबायली एकजुटता को सक्रिय ही किया।
लेकिन अमेरिका और कई अन्य लोकतंत्र पारंपरिक बहुलवाद से घातक कबायलीवाद में कैसे बदल गए? मेरा जवाब है: आज सोशल नेटवर्क लगातार लोगों का ध्रुवीकरण कर रहे हैं और वैश्वीकरण, जलवायु परिवर्तन, आतंक के खिलाफ युद्ध, आय में बढ़ता अंतर और तकनीकी नवाचारों के कारण लगातार नौकरी बदलने से लोग तनावग्रस्त हैं। इससे लोकतंत्र चलाना मुश्किल हो गया है। और फिर यह महामारी आ गई।
दुनिया के कई लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेताओं को गठबंधन और बहुलतावादी समाजों में समझौता करने की तुलना में कबायली अपील से समर्थन जुटाना ज्यादा आसान लगता है, जो पहचान से जुड़ा है। जब ऐसा होता है तो सबकुछ कबायली पहचान से जुड़ जाता है। किभी भी बात पर आपका मत दूसरों को चुनौती जैसा लगता है: क्या तुम मेरे कबीले से हो या नहीं? ऐसे में जनहित पर कम ध्यान होता और काम करने के लिए कोई साझा आधार नहीं बचता। आज हम किसी टूटे पुल को सुधारने पर भी एकमत नहीं हो पाते।
नेतृत्व मायने रखता है। अमेरिकी आबादी में अमेरिकी सेना के समान विविधता है। सैद्धांतिक बहुलवाद पर आधारित नैतिक नेतृत्व मायने रखता है। इसीलिए अमेरिकी सेना उस समय बहुलवाद की वाहक बनी हुई है, जब ज्यादा से ज्यादा नागरिक राजनेता सस्ते कबायलीवाद को अपना रहे हैं। मुझे चिंता इस बात की है कि कबायलीवाद का यह वायरस अब दुनिया के कई सबसे विविध लोकतंत्रों को संक्रमित कर रहा है, जैसे इजरायल, ब्राजील, हंगरी और पोलैंड। लोकतंत्रों का इस कबायलीवाद वायरस से संक्रमित होने का इससे बुरा समय नहीं हो सकता।
अभी हर समुदाय, कंपनी व देश को तकनीकी बदलावों, वैश्वीकरण व जलवायु परिवर्तन के अनुसार खुद को ढालने की जरूरत है। और यह प्रभावी ढंग से करने के लिए बिजनेस, कर्मचारियों, शिक्षाविदों, सामाजिक उद्यमियों और सरकारों के बीच उच्चस्तरीय सहयोग होगा, न कि ‘शासन करो या मर जाओ’ के रवैये से। हमें कबायलीवाद के टीके की जरूरत है, वर्ना हर जगह लोकतंत्रों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।
थॉमस एल. फ्रीडमैन
(लेखक तीन बार पुलित्जऱ अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइस’ में नियमित स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)