एक चुनाव की कवायद

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अपने पहले कार्यकाल में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी चुनाव एक साथ कराने की दिशा में पहल की थी। इस बार भी वैसी ही कोशिश बुधवार को हुई। 40 दलों को बुलाया गया था लेकिन 21 दलों ने ही हाजिरी लगायी। आपत्तियों और सुझावों के बीच कुल मिलाकर यह हुआ कि प्रधानमंत्री समिति गठित करेंगे, जो सारे पहलुओं का अध्ययन करेगी। इस बीच ज्यादातर विपक्षी दलों का तर्क है कि दूसरे और जरूरी मुद्दे देश के समाने हैं, प्रधानमंत्री को उस बारे में दूसरे दलों के साथ विचार-विमर्श करना चाहिए था। विपक्षी दलों का मानना है कि 1967 से बिगड़ा चुनाव कलेंडर मौजूदा परिस्थितियों में सुधारा नहीं जा सकता। खुद चुनाव आयोग की तरफ से भी यह बात सामने आयी है कि एक साथ चुनाव के लिए पर्याप्त सुरक्षा बल उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में कार्य को अंजाम दे पाना कठिन होगा। एक चुनाव के विरोध में सुगबुगाहट यह भी है कि इससे केन्द्र में मौजूदा भाजपा सरकार को लाभ होगा।

हालांकि किस तरह लाभ होगा। समझ से परे है। इस बारे में कांग्रेस के युवा नेता मिलिंद देवड़ा भी विपक्ष की आशंका को खारित करते हुए कहते हैं कि इस बार उड़ीसा और आंध्र में एक साथ लोक सभा और विधानसभा के चुनाव हुए लेकिन दोनों के नतीजे एक जैसे नहीं रहे। पर टीएमसी जैसे दल इसे फेडरल डेमोक्रेसी की आत्मा के विपरीत मानते हुए मोदी के प्रस्ताव का विरोध करते हैं। क्षेत्रीय दलों का रवैया तो कुछ हद तक समझ में आता है लेकिन कांग्रेस का बैठक से दूर होना अतार्किक लगता है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी है। देश में कई दशक तक इस पार्टी का एक छत्र राज रहा है। यह स्थिति भी रही कि सारे चुनाव देश में एक साथ रहे। पहली बार 1967 में जब कई राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई लेकिन वजूद में आयी साझा सरकारें अपने अन्तर्विरोधों के चलते अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं।

इसी तरह 1972 में प्रस्तावित लोक सभा चुनाव 1971 में करा लिया गया तबसे चुनाव का कलेंडर बिगड़ा हुआ है। स्थिति यह है कि हर तीसरे-चौथे महीने देश के किसी ना किसी कोने में चुनाव होते रहते हैं। इससे विकास की योजनाएं भी प्रभावित होती रहती हैं और राजनीतिक दल भी अपनी ताकत बढ़ाने के लिए ज्यादा फिक्र मंद होते हैं। इस तरह जनता की अपेक्षाएं तो धरी रह जाती हैं, बस पार्टियां अपना ग्राफ बढ़ाने में लगी रहती हैं। एक राष्ट्र, एक चुनाव के पीछे का उद्देश्य वास्तव में अच्छा है, इस पर व्यापक विचार-विमर्श की जरूर है। देश का पैसा बचे और राजनीतिक दल बारहो मास सियासत करते ना दिखें बल्कि विकास के लिए अपनी ऊर्जा खपायें। पर स्थिति निर्मित किये जाने की जरूरत है। अब जब इस दिशा में सरकार की तरफ से पहल हुई तो उस पर सटीक सुझाव देने की जरूरत है, ना कि बैंकों से बंक करने की। कांग्रेस को कम से कम ऐसा करने से पहले अपनी राष्ट्रीय भूमिका का ध्यान रखना चाहिए था। सपा और बसपा जैसे दलों की बात अलग है।

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