एक्जिट पोल की खबरों ने विपक्षी दलों का दिल बैठा दिया है। एकाध को छोड़कर सभी कह रहे हैं कि दुबारा मोदी सरकार बनेगी। विपक्षी नेता अब या तो मौनी बाबा बन गए हैं या हकला रहे हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे अगले तीन-चार दिन कैसे काटें। लेकिन भाजपा गदगद है। यदि एक्जिट पोल की भविष्यवाणियां सत्य सिद्ध हो गईं तो जैसा कि मैंने कल कहा था, भारत में एक मजबूत और स्थिर सरकार अगले पांच साल के लिए आ जाएगी लेकिन यह तो 23 मई को ही पता चलेगा।
अभी तो हमें यह भी जानना चाहिए कि ये एक्जिट पोल कितने पोले होते हैं या हो सकते हैं। चुनाव परिणाम के पहले दौड़ाए गए ये अंदाजी घोड़े कई बार मुंह के बल गिरे हैं। देश ने यह खेल 1971 और 1977 में भी देखा था और 2004 में अटलजी ने और 2009 में मनमोहनसिंह को भी उल्टे परिणामों ने भी यही खेल दिखाया था। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, इजराइल में नेतन्याहू और अभी-अभी आस्ट्रेलिया में भी यही हुआ है। अपना वोट डालने के बाद जो वोटर बाहर आता है कि वह किसी अनजान आदमी को अपने गुप्त मतदान की सही जानकारी दे, यह जरुरी नहीं है।
यदि देश के 90 करोड़ मतदाताओं में से आठ-नौ लाख से बात करके अपने नतीजों का आप ढोल पीटने लगते हैं तो आपको कहां तक सही माना जा सकता है ? एक प्रतिशत की राय को 100 प्रतिशत की राय कैसे मान सकते हैं ? मतदाता मनुष्य है, चना या चावल नहीं। हंडिया का एक चावल पका हो तो हम मानकर चलते हैं कि सभी चावल पक गए हैं लेकिन आदमी तो चावल नहीं है। जड़ नहीं है, निर्जीव वस्तु नहीं है। हर आदमी का अपना अंतःकरण है, अपनी बुद्धि है, अपनी पसंदगी और नापसंदगी होती है।
इसके अलावा एक्जिट पोल करनेवाले लोगों को आप बेहद ईमानदार और निष्पक्ष मान लें तो भी उनका अपना रुझान तो होता ही है। जब ठोस तथ्य सामने न हों और आपके अंदाजी घोड़े दौड़ने हों तो वह रुझान आपके नतीजों पर हावी हो सकता है। इसीलिए कोई जिसे 350 सीटें देता है, उसे कोई और 150 में ही निपटा देता है।
ऐसी स्थिति में एक्जिट पोल के नतीजों को दिल से लगा बैठना ठीक नहीं है। बहुत सुखी और बहुत दुखी होना ठीक नहीं है। फिर भी एक्जिट पोल और चुनाव के पहले होनेवाले सर्वेक्षणों को आप एकदम अछूत भी घोषित नहीं कर सकते हैं। यह एक अनिवार्य मानवीय कमजोरी है।
अब से चालीस-पचास साल पहले, जब कोई गर्भवती महिला प्रसूति-घर में जाती थी तो लोग डाक्टरों से पूछते थे कि लड़का होगा या लड़की ? मतदान के बारे में यह रहस्य हमेशा बना रहेगा, क्योंकि उसका गुप्त रहना बेहद जरुरी है। चुनाव के पहले तरह-तरह की दर्जनों भविष्यवाणियां होती हैं। कई बार तीर फिसल जाता है और तुक्का निशाने पर बैठ जाता है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं