इस बार की दीवाली उस बारात जैसी होगी जिसमें न बैंड हो और न ही डीजे। वायु प्रदूषण के चलते खराब हो रही हवा की गुणवत्ता को देखते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने देशभर में पटाखों की बिक्री और इस्तेमाल पर रोक लगा दी है। एनजीटी के इस आदेश ने आतिशबाजी निर्माताओं, थोक और फुटकर विक्रेताओं की आंखों में आंसू ला दिये हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें? कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि उनके नुकसान की भरपाई कौन करेगा? एनजीटी ने दिल्ली-एनसीआर में 9 नवम्बर की आधी रात से 30 नवम्बर की आधी रात तक सभी तरह के पटाखों की बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। दिल्ली में पहले ग्रीन पटाखों की बिक्री और इस्तेमाल की इजाजत के तौर पर पटाखा विक्रेताओं को लाइसेंस दिये गये थे। तमाम लाइसेंस प्राप्त पटाखा विक्रेताओं ने माल खरीद लिया, दो पैसे कमाने की आस जगा ली। मगर तभी दिल्ली सरकार ने सभी तरह के पटाखों की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध ठोक दिया। पटाखा विक्रेताओं के अरमानों का दीया बुझ गया। पहले से ही कोरोना की मार से बीमार व्यापार आईसीयू में भर्ती होने की स्थिति में पहुंच गया है। देश में पटाखे का लगभग 9000 करोड़ रुपए का कारोबार है।
न तो एनजीटी और न ही पटाखों पर प्रतिबंध लगाने वाली राज्य सरकारें इस प्रश्न का उत्तर देने को तैयार है कि इस बैन से पटाखा उद्योग से जुड़े लाखों लोगों की रोजी-रोटी का क्या होगा? अकेले तमिलनाडु में पटाखा उद्योग से जुड़े आठ लाख से ज्यादा लोगों पर प्रतिबंध का बहुत बुरा प्रभाव पडऩे वाला है। उनके बारे में कोई कुछ नहीं सोचेगा या? पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर जनस्वास्थ्य का वास्ता दिया गया है। एक वजह बताई गई है कि कोरोना संक्रमण के बढ़ते दायरे के दौर में वातावरण का प्रदूषित रहना कहीं अधिक घातक हो सकता है। आतिशबाजी का धुआं कोरोना-प्रसार में सहायक हो सकता है, या यह बात एनजीटी को 9 नवम्बर को ही पता चली है? क्या दिल्ली-एनसीआर की हवा खराब होने की जानकारी एनजीटी या दिल्ली सरकार को 9 नवम्बर से पहले पता नहीं थी? अगर जानकारी नहीं थी तो यह दुर्भाग्यपूर्ण सफेद झूठ है और अगर थी तो क्यों तो पटाखा बेचने के लाइसेंस दिये गये और यों नहीं बहुत पहले पटाखों पर प्रतिबंध की घोषणा की गई। समय रहते प्रतिबंध लग जाता तो व्यापारियों की कमाई ही मरती, कम से कम खरीद में खप गया पैसा तो बच जाता। इसी को कहते हैं अदूरदर्शिता या दूरदर्शिता का घनघोर अभाव।
सवाल यह भी उठता है कि क्या दिल्ली पर पटाखों को फोडऩे पर प्रतिबंध लगाने भर से वायु प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है? क्या तीन दिन की पटाखों की कारोबारी सरगर्मी बाकी 362 दिनों की कोताही, लापरवाही, अनदेखी और गैर जिम्मेदारी पर भारी पड़ती है? पटाखों पर प्रतिबंध के पक्ष में वो सरकारें भी खड़ी हो जाती हैं, जो अपने राज्य की सड़कों के उन गड्ढों को भरने तक में नाकाम रहती हैं, जिनके चलते माहौल में हमेशा धूल-धक्कड़ व्याप्त रहता है। सरकारों को केवल दीवाली पर ही प्रदूषण को लेकर इतनी सतर्कता क्यों याद आती है, बाकी दिनों का प्रदूषण सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होता है या है?सोशल मीडिया पर इन प्रश्नों के साथ आक्रोश उमड़ा पड़ रहा है कि या सारी रियायतें एक वर्ग विशेष के लिए आरक्षित है और तमाम प्रतिबंध बहुसंयक वर्ग के हिस्से में सुरक्षित रखे गये हैं?
इन प्रश्नों का उत्तर कोई जिम्मेदार व्यक्ति, सरकार या संस्था नहीं दे रहे हैं, योंकि इनका उत्तर वोट बैंक को प्रभावित करता है। लेकिन उनके उस दिमाग में यह बात यों नहीं आती है कि इन प्रश्नों का उत्तर न देने से भी उनके वोट बैंक का बेलैंस घट सकता है। देश की सेहत के लिए पटाखों पर प्रतिबंध लगे लेकिन इसमें भेदभाव की बू नहीं आनी चाहिए। कहने वाले कहते हैं कि पहले से प्रदूषित वातावरण के लिए पटाखे एक मात्र जिम्मेदार नहीं हो सकते हैं क्योंकि पटाखों से वायु प्रदूषण के प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं है। एक ट्विटर यूजर की ट्वीट पर गौर फरमायेगा। रजत शर्मा नाम के यूजर ने कहा है- ‘यदि पटाखों से वायु, ध्वनि, मृदा और जल प्रदूषण बढ़ता है तो पटाखें पर पूर्ण प्रतिबंद्घ लगाइये और भारत को पटाखा मुक्त देश घोषित करिये। दोहरा मापदंड सर्वथा अनुचित है।
राकेश शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)