हम मूर्ति भंजन के दौर में रह रहे हैं, जिसमें कुछ प्रतिमाएं खुद ब खुद टूट रही हैं तो कुछ किसी खास विचारधारा की वजह से तोड़ी जा रही हैं। बहुत साल पहले हरिशंकर परसाई ने एक व्यंग्य लिखा था- चलो प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे। आज चारों तरफ प्रतिमाओं के सिंदूर खरोंचे जा रहे हैं। प्रतिमा और प्रतिमान दोनों की कमी के ऐसे दौर में अगर कोई स्थापित प्रतिमा टूटती है तो दुख होता है और अफसोस भी। जैसे द हिंदू अखबार के पूर्व संपादक और इसका प्रकाशन करने वाली कंपनी टीएचजी पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड के चेयरमैन एन राम को लेकर हुआ है। एन राम हमारे समय के थोड़े से ऐसे पत्रकारों में हैं, जिन्होंने अपनी बेबाकी, ईमानदारी, अभिव्यक्ति की आजादी को निभाने की अपनी जिद और पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों के प्रति सतत समर्पण से ऐसी जगह बनाई है, जो उन्हें बाकी लोगों से अलग करती है। उनके संपादकत्व में द हिंदू ने जो मुकाम बनाया है वह अभूतपूर्व है। पर रविवार को वे तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल हुए और जेल में बंद पी चिदंबरम का समर्थन किया।
एन राम ने यह नहीं कहा कि चिदंबरम या दूसरे विपक्षी नेताओं को राजनीतिक बदले की भावना से गिरफ्तार किया गया है, बल्कि उन्होंने यह कहा कि चिदंबरम बेकसूर हैं, उन्हें बिना किसी सबूत के गिरफ्तार किया गया है और उनके साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में विपक्षी पार्टियों के प्रति राजनीतिक दुर्भावना से कार्रवाई हो रही है। विपक्षी नेताओं को चोर, बेईमान साबित करने के लिए जनधारणा बनवाई जा रही है और उसके बाद केंद्रीय एजेंसियां उनको गिरफ्तार कर रही हैं। इसमें भी संदेह नहीं है कि सरकार संगठित विपक्ष को खत्म करने या कमजोर करने के प्रयास कर रही है। इसके बावजूद कोई भी पत्रकार चिदंबरम या गिरफ्तार किए गए दूसरे किसी नेता को बेकसूर होने का प्रमाणपत्र कैसे दे सकता है?
अव्वल तो एन राम का चिदंबरम के समर्थन में बुलाई गई कांग्रेस की बैठक में शामिल होना गलत है। दूसरे, चिदंबरम को ईमानदारी का सर्टिफिकेट देना भी गलत है। यह केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के राजनीतिक विरोधियों पर हो रही कार्रवाई का सामूहिक प्रतिरोध नहीं है। यह कोई जन आंदोलन का हिस्सा भी नहीं है। यह एक व्यक्ति विशेष का समर्थन है, जो किसी खास राग-द्वेष से प्रभावित हो सकता है। जबकि उनके जैसे पत्रकार से यह उम्मीद की जाती है कि वे लोगों की सामूहिक चेतना को प्रभावित करने का प्रयास करेंगे। अगर सरकार लोकतंत्र के विरूद्ध कोई काम करती है या किसी तरह के भ्रष्टाचार में शामिल होती है तो वे और उनका अखबार उसके खिलाफ जनधारणा बनाने और जन आंदोलन खड़ा करने में सहायक बनेंगे।
वे और उनका अखबार ऐसा करते भी रहे हैं। राफेल सौदे पर जितनी बहादुरी से एन राम ने सरकारी दस्तावेजों के आधार पर घोटाले की खबरों को जाहिर किया वह पत्रकारिता का एक नायाब अध्याय है। यह काम तीस साल पहले भी उन्होंने किया था, जब उनके अखबार ने बोफोर्स तोप घोटाले से जुड़े दस्तावेजों को इसी तरह से प्रकाशित किया था। तभी जब राफेल घोटाले पर उनकी रिपोर्ट को लेकर भाजपा ने उनकी आलोचना की और सरकार अदालत में गई तो लोगों ने भाजपा को याद दिलाया कि ये वहीं एन राम हैं, जिन्होंने बोफोर्स घोटाले का खुलासा किया था और उसी की बदौलत 415 सांसदों के बहुमत वाली कांग्रेस की सरकार को अगले चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था।
पर अब एन राम कांग्रेस के कार्यक्रम में जाकर पी चिदंबरम का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें बेकसूर ठहरा रहे हैं और उनका अखबार फोटो के साथ इसे प्रकाशित कर रहा है। समझ नहीं आता है कि अपने तमिल प्रेम में उन्होंने चिदंबरम का समर्थन किया या भाजपा के प्रति नफरत में इतना बह गए कि चिदंबरम का समर्थन करने लगे? ऐसा नहीं है कि अभी से चिदंबरम को दोषी मान लिया जाना चाहिए पर उन्हें बेकसूर भी तो नहीं माना जा सकता! फिर अगर एन राम को लगता है कि चिदंबरम बेकसूर हैं तो उन्हें इस बात को सारे सबूतों के साथ अपने अखबार में प्रकाशित करना चाहिए।
यह सही है कि पत्रकार को सार्वजनिक बुद्धिजीवी होना चाहिए। धीरे धीरे ऐसे लोगों की संख्या कम हो रही है, जो सत्ता विरोध में खुल कर बोलते हैं, उसकी मनमानियों पर सवाल उठाते हैं और सही-गलत को सार्वजनिक मंचों पर व्यक्त करते हैं। पर एन राम ने जो किया है वह सत्ता की मनमानी का विरोध नहीं है। वह सीधे सीधे पी चिदंबरम का समर्थन है। ध्यान रहे एन राम कांग्रेसी कार्यकर्ता नहीं हैं और न चिदंबरम कोई सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे सुधा भारद्वाज या वर्नेन गोंसाल्वेज या गौतम नवलखा या वरवर राव नहीं हैं वे एक पार्टी के नेता हैं। सरकार में रहे हैं और उनके ऊपर बड़े घोटालों में शामिल होने का आरोप लगा है। उनका समर्थन या कई पत्रकारों द्वारा किया जा रहा विरोध भी, कहीं से पत्रकारिता के मूल्यों के अनुकूल नहीं है। एन राम के अपने बनाए मूल्यों के भी अनुकूल नहीं है।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनका निजी विचार हैं