राजधानी तो राजधानी होती है। उसका इतिहास होता है, उसी का भूगोल भी होता है। उसी का सुख होता है और दुख भी उसी का होता है। जब राजधानी को दस्त होते हैं तो देश को ईसबगोल लेना होता है। जब राजधानी को कब्ज़ होता है तो सारे देश को जुलाब दिया जाता है भले ही उसे चार दिन से खाना न मिला हो। बिना जाने-समझे जोर-जोर से उन नारों को लगाना होता है भले ही उनका अर्थ-अनर्थ, भाव-स्वभाव, सद्भाव-दुर्भाव नारे ईजाद करने वालों को भी न मालूम हो।
हमें रात को रजाई में भी ठण्ड लगी इसका कोई रोना-गाना नहीं है लेकिन यह पढ़ना पड़ता है कि आज राजधानी में ठंड ने पिछले 100 साल का रेकार्ड तोड़ दिया। राजधानी ने तो बलात्कारों के रेकार्ड भी तोड़ दिए, शिक्षण संस्थाओं में अनुशासन स्थापित करने की तीव्र गति और अपनाए गए नए-नए तरीकों के भी रेकार्ड तोड़ दिए। हम इस मामले में अधिक नाक नहीं घुसेड़ना चाहते क्योंकि कहीं रेकार्ड के साथ-साथ कोई हमारा सिर भी न तोड़ दे।
यह भी समाचार बन जाता है कि राजधानी ने आज किस रंग की जैकेट पहनी या किस रंग का कुर्ता पहना। वैसे हम देखते हैं राजधानी में सेवा करने वाले किसी सेवक को ठिठुरन नहीं हो रही है बल्कि जोश, गर्व और उत्साह में उबल रहे हैं और हमारा यह हाल है कि ‘राम-राम’ बोलते हैं तो लोग कंपकंपी के मारे घरवालों को ‘हाय-हाय’ सुनाई देता है। अब दिसंबर के अंतिम और जनवरी के प्रारंभिक दिनों में रात का तापमान माइनस चार और दो डिग्री के बीच झूलता रहा लेकिन किसी सेवक ने हमारे लिए कोई गरमाहट भरा जुमला तक नहीं फेंका।
रमेश जोशी
( लेखक देश के वरिष्ठ व्यंग्यकार और ‘विश्वा’ (अंतर्राष्टीय हिंदी समिति, अमरीका) के संपादक हैं। blog-jhoothasach.blogspot.com ( joshikavirai@gmail.com)