आर्थिक मोर्चे पर क्या करना जरूरी?

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बीते करीब दो महीनों से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को कठोर आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद इनकी प्रकृति भी और अधिक क्रूर हो गई है। यह उनकी गलती नहीं थी। उन्होंने जो बजट प्रस्तुत किया था वह उन्हें तैयार करके दिया गया था। बजट की गलतियों के लिए व्यापक तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ वित्त सचिव और संयुक्त सचिव जवाबदेह थे। अब दोनों ही पद पर नहीं हैं। वित्त सचिव ने तो विरोध स्वरूप अपना पद छोड़ा।

बीते एक महीने में वित्त मंत्रालय को संसाधनों की काफी कमी का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद वह अपने स्तर पर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का प्रयास कर रहा है। मंत्रालय अव्यवहार्य होने पर भी विभिन्न प्रकार की रियायतों की घोषणा करता रहा। हाल ही में कॉर्पोरेट कर में जो कटौती की गई है वह अपने आप में बहुत बहादुरी भरा कदम है क्योंकि इससे राजकोष को करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये का नुकसान सहन करना होगा। चूंकि इसका अप्रत्यक्ष कर राजस्व पर सीधा असर होगा, ऐसे में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3 फीसदी तक सीमित रखने की बात अब इतिहास की बात हो चुकी है।

सवाल यह है कि अब इसके आगे क्या? नकदी डालने के निष्प्रभावी कदम और जरूरी कर सुधारों (जिसे अब अंजाम दिया जा चुका है) के अलावा सरकार को क्या कुछ करने की आवश्यकता है? अर्थव्यवस्था दोबारा पटरी पर कैसे आ सकती है? इसका जवाब पांच बातों में निहित है।

पहली बात, मोदी को यह स्वीकार करना होगा कि वह गलत थे। उन्हें वित्त मंत्रालय को यह निर्देश देना होगा कि 90 फीसदी वस्तुओं को शून्य दर के दायरे में लाए। इसी प्रकार 5 फीसदी से ऊपर की तमाम दरों को 18 फीसदी की एकल दर में समाहित कर दिया जाना चाहिए।

दूसरी बात, व्यक्तिगत आय कर की दरों को भी अगले बजट में 20 और 30 फीसदी के दो स्लैब में सीमित कर दिया जाना चाहिए। इसके अलावा कर लगाने की सीमा को बढ़ाकर 18 लाख कर दिया जाना चाहिए। यानी अगर कोई व्यक्ति मासिक 1.5 लाख रुपये या इससे कम कमाता है तो उस पर कोई कर नहीं लगाना चाहिए। यह काफी अधिक लग सकता है लेकिन मध्यवर्गीय व्यक्ति को जिस तरह के खर्च का सामना करना पड़ता है, उसे देखते हुए इतनी रियायत बहुत ज्यादा नहीं है। मैंने कुछ सप्ताह पहले इस बारे में लिखा भी था। इसके लिए काफी हद तक शहरी क्षेत्रों में परिवार की बदलती स्थिति से भी है।

तीसरी बात है परिसंपत्ति के निस्तारण की। एकमात्र परिसंपत्ति जिसे बिना मजदूर संगठनों और सुरक्षा के मसलों के बिना बेचा जा सकता है, वह है जमीन। सरकार को इस प्रक्रिया की शुरुआत अपने सामाजिक कार्यक्रमों के वित्त पोषण के लिए करनी चाहिए। तब कोई शिकायत नहीं करेगा।

चौथा, राजस्व में अस्थायी रूप से आने वाली कमी की फंडिंग का भी सवाल है। मैं बीते एक वर्ष से अधिक समय से इस विषय पर लिख रहा हूं कि अब वक्त आ गया है कि तदर्थ बिलों को एक बदले हुए स्वरूप में नया जीवन प्रदान किया जाए। ऐसा करना नई नकदी छापने के समान ही है और यह एक बड़ा संसाधन होगा।

यहां मुद्दा यह है कि महज इसलिए क्योंकि राजीव गांधी ने सन 1986 से 1989 तक राजीव गांधी ने इन्हें प्रमुखता दी और सन 1990 में हमें इनका खमियाजा उठाना पड़ा तो इसका यह मतलब नहीं है कि ये एकदम बेकार ही हैं। सच्चाई तो यही है कि इन्होंने हमारी एक अहम जरूरत को पूरा किया। अब जरूरत यह है कि इनकी मौजूदा सीमा को बढ़ाया जाए। 100,000 करोड़ रुपये की मौजूदा सीमा बहुत कम है। इसका निर्धारण भी दो दशक पहले किया गया था।

पांचवीं और सबसे अहम बात यह है कि इस अवधारणा को त्यागना होगा कि सरकार व्यय चाहती है और इसे हासिल करने के लिए राजस्व में इजाफा करना जरूरी है। कर और व्यय हमेशा व्यय और कर के समान नहीं होते। ऐसे में एक ओर जहां आम जनता की मांग यही है कि सरकार को व्यय में इजाफा करना चाहिए, वहीं जरूरत इस बात की है कि व्यय पर भारी अंकुश लगाया जाए। निजी तौर पर मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी में यह करने की पूरी क्षमता है। आगामी पांच वर्ष में 15 फीसदी की कटौती से काम हो जाएगा। इससे पहले सन 1967, 1974, 1981 और 1991 में ऐसा किया जा चुका है।

सन 2014 में मोदी के सत्ता में आने के तत्काल बाद ही विमल जालान समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने कई उपयोगी विचार प्रस्तुत किए। लब्बोलुआब यह है कि व्यय में बदलाव लाया जाए और ऐसे सेवानिवृत्त लोगों को भुगतान बंद किया जाए जिनके पास पेंशन के अलावा आय के अन्य स्रोत हैं। प्रधानमंत्री ने सन 2014 में अपने कार्यकाल की शुरुआत संकट के दौर से की थी और वर्ष 2019 में एक बार फिर ऐसा ही हुआ। पहले अवसर पर वह इससे निजात पाने में कामयाब रहे थे। उन्हें लगा कि अकेले सेवा आपूर्ति का सुधार पर्याप्त रहेगा। यह नरसिंह राव-मनमोहन सिंह के सुधारों के उलट था जो मानते थे कि वृहद आर्थिक सुधार ही पर्याप्त हैं। मोदी की खुशकिस्मती है कि उनके पास एक बार फिर यह सुनहरा अवसर है कि वह एक बड़े सुधारक के रूप में सामने आएं। उनके पास साढ़े चार वर्ष का समय है। देखना होगा कि वह इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं।

टीसीए श्रीनिवास-राघवन
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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