आज भी वैसा ही हूं

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मैं आज भी वैसा ही हूं,
थोड़ा अड़ियल, थोड़ा नादान…
थोड़ा गुमसुन, थोड़ा शैतान…
न टूटा हूं, न बदला हूं,
हां मैं आज भी वैसा ही हूं…

बदला है जमाना, बदला मौसम है,
न बदला है, तो मेरा अफसाना…
कई बदले है हाथों के लकीरें,
तो कहीं बदली है, मेरी तस्वीरें…
इनसब से अनजान,
मैं आज भी वैसा ही हूं…

खुले अहसासों से लिपटा,
किताबों में कहीं जकड़ा…
अपने आप में सिमटा हुआ,
हां मैं आज भी वैसा ही हूं…

मेरे सपने मुझे खरेच जाती है,
दर्द का हल्का झोका मुझे नोच जाती है…
अनमना सा आज भी जीता हूं,
हां मैं आज भी वैसा ही हूं…

पलटने की अदाएं आज भी नहीं सीख पाया हूं,
इस जमाने से किसी की चलाकी आज भी…
नहीं समझ पाया हूं, दरख्तों सा खामोश खड़ा,
परिन्दों सा झांकता, अपान उलझा जीवन खोजता हूं…
हां मैं आज भी वैसा ही हूं…

शायद तब तक ऐसा रहूं,
जब तक अपने को न जान लूं…
अपना मंजिल न पहचान लूं,
उलसे बाद शायद थोड़ा बदल जाऊं…
पर मुझे फिर यकीन है तुम मुझे पहचानोंगी,
मैं तब भी कहीं न कहीं वैसा ही रहूं…

1 COMMENT

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