कोरोना के खिलाफ लड़ाई में जिस लॉकडाउन का सहारा लिया गया है, वह पूर्वी, पश्चिमी और उत्तर भारत के लिए यहां के निवासियों की वजह से ही बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। कोलकाता से लेकर मुंबई-अहमदाबाद और दिल्ली-जयपुर से लेकर लखनऊ तक से अपने घरों के लिए पैदल निकले मजदूरों के रेले ने इस लड़ाई को चुनौतीपूर्ण तो बनाया ही है, नीति निर्माताओं और राजव्यवस्था पर कुछ अहम सवाल भी उठाए हैं। अपने-अपने गांवों को निकली इस भीड़ के बारे में कहा जा रहा है कि इसे बरगलाया गया। कोई यह भी कह सकता है कि इन लोगों ने अफवाहों पर भरोसा कर लिया। लेकिन इसके साथ ही यह प्रश्न भी उठेगा कि संविधान लागू करने के 70 साल बाद भी भारत की बड़ी जनसंख्या की बुनियादी जरूरतें आखिर क्यों नहीं पूरी की जा सकीं? समाज के निचले पायदान के लोगों को शैक्षिक और आर्थिक स्तर पर इतना सशत क्यों नहीं बनाया जा सका ताकि वे अफवाहों को नकारते हुए अपनी सामाजिक चुनौतियों को समझ सकें? देशव्यापी लॉकडाउन की अचानक घोषणा का मकसद था कि जो जहां है, वही ठहर जाए और संचारी कोरोना वायरस को बांधा जा सके। वैसे भी भारत जैसे देश में, जहां अफवाहों पर दंगे भड़क उठते हैं, लंबे धरने और आंदोलन शुरू हो जाते हैं।
महामारी के मद्देनजर लॉकडाउन का फैसला पूर्व नियोजित ढंग से करना संभव नहीं है। लेकिन जिस शंका के मद्देनजर देशबंदी की अचानक घोषणा की गई थी, सड़कों पर भूखे-प्यासे उतरे मजदूरों के हुजूम ने उसे हकीकत में बदल दिया है। ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह कहना सही ही है कि मजदूरों की आवाजाही से महामारी को थामने के मकसद पर बुरा असर पड़ेगा। हालांकि यह सभी मान रहे हैं कि हजार किलोमीटर तक की दूरी पैदल नापना लोगों का जज्बा कम, मजबूरी ज्यादा थी। प्रधानमंत्री द्वारा देशबंदी की घोषणा करने के पहले ही राज्य सरकारों ने अपने यहां बंदी की घोषणा शुरू कर दी थी। अरविंद केजरीवाल और योगी आदित्यनाथ ने जहां दिल्ली और यूपी में तीन-तीन दिनों के लॉकडाउन का ऐलान किया था, वहीं हरियाणा सरकार ने भी बाजार बंद कर दिए थे। उत्तराखंड भी इस राह पर बढ़ चला था। राजस्थान और पंजाब सरकार ने 31 मार्च तक अपने-अपने यहां कर्फ्यू और धारा 144 लगा दी थी। लेकिन किसी भी राज्य ने बंदी के दौरान दिहाड़ी मजदूरों और रेहड़ी-पटरी वालों के लिए रोटी-पानी के ठोस इंतजाम का ऐलान नहीं किया था।
चाहे महाराष्ट्र की सरकार हो या उत्तर प्रदेश की, दिल्ली की हो या फिर हरियाणा की, कोई भी सरकार हाशिये पर पड़े लोगों और मजदूरों में यह भरोसा पैदा करने में नाकाम रहीं कि उन्हें लॉकडाउन की हालत में खानेपीने की तकलीफ नहीं होगी। लिहाजा रोजाना कमाने-खाने वाले, झुग्गियों और अमानवीय हालात में रहने वाले हजारों लोगों के सामने जीवनयापन का संकट खड़ा हो गया। वे बदहवासी से भर उठे। हो सकता है कि इस बीच कुछ अफवाहबाजों ने अफवाहें भी फैलाई हों और अभावों में जिंदगी गुजारने वाले इस तबके के ज्यादातर लोगों को महानगरों में अपनी जिंदगी तबाह होती नजर आने लगी हो। इसे भारत के सामाजिक तंत्र की कमजोरी ही कहा जाएगा कि छोटे-बड़े नियोक्ताओं से अपने यहां काम करने वालों को राहत देने की प्रधानमंत्री की अपील भी नाकाम रही। करीब पैंतीस साल पहले अर्थशास्त्री आशीष बोस ने उत्तर भारत के चार राज्यों बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को बीमारू जैसा अपमानजनक नाम दिया था। आशीष बोस का तर्क था कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को नकारात्मक हद तक यही चार राज्य प्रभावित करते हैं। दुर्भाग्य देखिए कि सड़कों पर जो हुजूम निकला, वह इन बीमारू राज्यों का ही है।
लेकिन हाशिए पर पड़े लोगों की जिंदगी में इससे कुछ खास बदलाव नहीं आया। बेशक आज हालात तीन दशक पहले वाले न हों, लेकिन वे इतने बेहतर भी नहीं है। आज भी महज अपना पेट पालने के लिए देश में सबसे ज्यादा पलायन इन्हीं राज्यों से हो रहा है। किताबों में भारत को गांवों का देश बताना अच्छा लगता है लेकिन इसके पीछे गांवों से रत्ती भर लगाव भी होता तो नीति निर्माण के केंद्र में गांव और गरीब को होना चाहिए था। भारतीय नौकरशाही में समाजवादी शैक्षिक पृष्ठभूमि का वर्चस्व तो है, लेकिन नीति निर्माण के केंद्र में यह सोच कम ही नजर आती है। कहा जाता है कि हमारी नौकरशाही में देश की बेहतरीन प्रतिभाएं शामिल हैं। इस लिहाज से माना जा सकता है कि उसकी सोच और प्रशिक्षण में कोई बड़ी कमी है। ऐसा नहीं होता तो लॉकडाउन की घोषणा के बाद राज्यों की नौकरशाही दिहाड़ी और कम आय वर्ग वाले लोगों को राहत पहुंचाने के लिए युद्ध स्तर पर काम करती। वह इस वर्ग को भरोसा जताने में जुट जाती कि देशबंदी में भी उन पर भुखमरी का साया नहीं पडऩे जा रहा। पर ऐसा कुछ नहीं हो पाया। आगे
या होगा, समय ही तय करेगा।
उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)