अयोध्या के राम मंदिर विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का जो फैसला आया है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। पहली बात तो यह कि यह फैसला सर्वसम्मति से आया है और फिर बड़ी बात यह कि देश के हिंदुओं और मुसलमानों के सम्मान की रक्षा करता है।
6 दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया तो उसके बाद नरसिंहराव सरकार ने अध्यादेश जारी करके जो लगभग 70 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की थी, उसका लक्ष्य भी यही था कि उस क्षेत्र में (राम जन्मभूमि पर) भव्य राम मंदिर तो बने ही लेकिन अन्य धर्मों के पूजा-स्थल भी बन जाएं।
यदि वैसा फैसला होता तो मैं उसे आदर्श फैसला कहता। राम की यह नगरी अय्योध्या विश्व-तीर्थ बन जाती लेकिन जो फैसला अभी आया है, वह न तो सिर्फ हिंदुओं के पक्ष में है और न ही सिर्फ मुसलमानों के। यह फैसला दोनों के पक्ष में है। दोनों पक्षों को इससे संतुष्ट होना चाहिए। अभी तक इस फैसले के जो तथ्य पता चले हैं, उनमें यह भी है कि राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का अधिकार दिया गया है लेकिन वह किसी हिंदू संस्था को नहीं दिया गया है। सरकार द्वारा नामित एक न्यास मंदिर बनाएगा। उस न्यास में मैं तो कहता हूं कि सभी रामभक्तों को रखा जाना चाहिए, चाहे वे मुसलमान हों, ईसाई हों या सिख हों।
इसी तरह से मस्जिद के लिए दी जानेवाली 5 एकड़ जमीन के लिए भी एक न्यास क्यों नहीं बना दिया जाता, उसी तरह का, जैसा मैंने मंदिर के लिए कहा है। न्यायालय ने यह भी कहा है कि बाबरी ढांचे को गिराना गैर-कानूनी था। इसी प्रकार 1949 में जबर्दस्ती वहां रामलला की मूर्ति प्रतिष्ठापित कर देना भी। इससे मुसलमानों के घावों पर मरहम लगेगा।
अब मुसलमान संस्थाओं को मस्जिद के लिए कोई बढ़िया 5 एकड़ जमीन चुन लेना चाहिए। वह तो कहीं भी हो सकती है, क्योंकि उसका किसी की जन्मभूमि या पुण्यभूमि होना जरुरी नहीं है। कुछ मुस्लिम नेता और वकील इस फैसले पर पुनर्विचार की याचिका भी लगाना चाहते हैं। वे जरुर लगाएं। क्यों नहीं लगाएं ? उन्हें पूरा हक है। मुझे खुशी है कि संघ-प्रमुख मोहन भागवत, प्र.म. नरेंद्र मोदी और किसी जिम्मेदार हिंदू नेता ने कोई उत्तेजक बयान नहीं दिया और ज्यादातर जिम्मेदार मुस्लिम नेताओं ने भी पर्याप्त संयम दिखाया है। यही आदर्श स्थिति है, क्योंकि इस मुकदमे में दोनों पक्षों की जीत हुई है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं