दिल्ली में एक बार फिर झाड़ू चल गई। झाड़ू फिर चलेगी, यह अंदाजा तो बीजेपी को भी हो गया था और कांग्रेस को भी। कांग्रेस ने पहले ही हथियार डाल दिए थे लेकिन बीजेपी आखिरी दम तक हार न मानने पर अड़ी हुई थी। एग्जिट पोल की तुलना एचुअल पोल से करने की उसकी तमन्ना भी खत्म हो गई और आखिर बीजेपी को भी जनता के इस फैसले के सामने नतमस्तक होना पड़ा। इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिले कि एक पार्टी पहली बार 67 सीटें जीतने का चमत्कार करे और फिर दूसरी बार भी 62 सीटें जीतकर अपने प्रदर्शन को साबित करे। दिल्ली की आवाज दूर तक जाती है और इस बार भी जाएगी। केजरीवाल ने जो करिश्मा किया है, वह सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं रह सकता। इसलिए कि उनके मुकाबले में अमित शाह खुद उतर आए, बीजेपी के नए अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने दिल्ली की गलियों की खाक छानी और पीएम नरेंद्र मोदी भी रैलियों में उतरे। उसके बावजूद अगर बीजेपी की यह गत बनी है तो फिर इस आवाज के दूर तक जाने के कारण भी बनते हैं। दरअसल दिल्ली में केजरीवाल ने जिस तरह का पॉजिटिव प्रचार किया, वह अपने आप में एक उदाहरण है।
वह प्रचार के दौरान कहते रहे कि मैं काम पर वोट मांग रहा हूं और ऐसा पहले किसी ने नहीं किया। 2003 और 2008 में शीला दीक्षित ने भी काम के आधार पर जीत हासिल की थी। मगर केजरीवाल की जीत उनसे कहीं आगे है।दरअसल लोकसभा का चुनाव बुरी तरह हारने के बाद केजरीवाल ने दिल्ली फतह करने का रोडमैप तैयार कर लिया था। उन्हें आभास हो गया था कि सिर्फ बिजली हाफ और पानी माफ से काम नहीं चलेगा। इसलिए उन्होंने जनता की जेब पर बोझ कम करने के लिए एक-एक करके इतने फैसले लिए कि जनता निहाल हो गई। बसों में महिलाओं की मुफ्त सवारी से लेकर, 200 यूनिट तक बिजली के बिल माफ, पानी के पुराने बिल माफ, बुजुर्गों की तीर्थयात्रा, छात्रों की बोर्ड की फीस माफ, किरायेदारों के लिए बिजली कनेशन, ऑटो-टैसी वालों को राहत के साथ-साथ वह रोजाना ही अपने पिटारे से तोहफे निकालकर जनता में बांटते रहे। उन्होंने इन सारी सौगातों को इस तरह पेश किया कि जनता इस पैकेज से अभिभूत हो गई।
केजरीवाल की जनता के साथ संवाद की खूबी ने सोने पर सुहागा वाला काम किया और उनकी यह रणनीति पूरी तरह कामयाब हो गई कि दिल्ली चुनावों को दिल्ली के मुद्दों तक ही सीमित रखना है। दूसरी तरफ बीजेपी किसी भी तरह इन चुनावों को राष्ट्रीय मुद्दों पर लाना चाहती थी। 2015 में बीजेपी ने बहुत बड़ी गलतियां की थीं, जिन्हें उसने बाद में स्वीकार भी किया था। सबसे बड़ी गलती यही थी कि स्थानीय इकाई को पूरी तरह पंगु बनाकर रख दिया गया था। इस बार अमित शाह ने 50 से ज्यादा सभाएं और रोड शो किए और जे.पी. नड्डा उम्मीदवारों के ऑफिस का उद्घाटन तक करने पहुंच गए। यहां तक तो ठीक था लेकिन जब मुद्दे भी अमित शाह ने तय कर दिए तो वहीं से चुनाव में हार का सिलसिला शुरू हो गया। आखिर बीजेपी के स्थानीय नेता बिजली, पानी, शिक्षा, प्रदूषण, ट्रांसपोर्ट या इंफ्रास्ट्रक्चर के मुद्दे पर केजरीवाल को क्यों नहीं घेर सकते थे, जबकि वे मानते थे कि दिल्ली में पिछले पांच सालों में एक भी स्कूल नहीं खुला, एक भी कॉलेज नहीं खुला, एक भी बस नहीं आई, एक भी फ्लाईओवर का प्रॉजेक्ट नहीं बना और जल बोर्ड भी घाटे में है।
इन सब की बजाय बीजेपी को बस एक ही मुद्दा भाया और वह था शाहीनबाग।आखिर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की आस में बीजेपी यह क्यों भूल गई कि यह लोकसभा का नहीं विधानसभा का चुनाव है। स्थानीय मुद्दों को दरकिनार करके बीजेपी पहले भी विधानसभा चुनावों में हारती रही है लेकिन फिर भी उसकी रणनीति नहीं बदली। जहां केजरीवाल लोकसभा चुनाव हारने के बाद रणनीति बनाने में जुट गए, वहीं बीजेपी अनुच्छेद370, तीन तलाक, अयोध्या के बाद सीएए के मुद्दे पर वोट बरसने की उम्मीद में बैठी रही। केजरीवाल शुरू से ही चाहते थे कि दिल्ली की जनता दिल्ली के मुद्दों पर वोट करे और वह अपनी इस रणनीति में कामयाब भी हुए जबकि बीजेपी ने समाज को बांटकर धर्म के आधार पर वोट हासिल करने की कोशिश की और उसे एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी है। बीजेपी को अब यह मान लेना होगा कि ध्रुवीकरण या फिर धर्म के आधार पर वोट मांगने का मुद्दा अब चुनावों में नहीं चलता और जनता इसे पसंद भी नहीं करती। 2015 के चुनाव प्रचार में बीजेपी ने केजरीवाल को बेचारा बना दिया था, जब पीएम मोदी ने उन्हें नसली तक कह दिया।
इस बार मोदी की दोनों रैलियों में कहीं भी केजरीवाल का नाम सुनने को नहीं मिला लेकिन प्रवेश वर्मा, कपिल मिश्रा और उनके जैसे दूसरे नेताओं ने केजरीवाल को आतंकवादी बनाकर पेश किया और 8 फरवरी को भारत-पाकिस्तान का मुकाबला तक करार दे दिया। उसके बाद केजरीवाल ने बीजेपी की इस दूसरी बार की गई गलती का खूब फायदा उठाया। जनता के सामने ही उन्होंने यह सवाल रख दिया कि क्या मैं आतंकवादी हूं, और अब जनता ने बीजेपी को जवाब दे दिया है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, लगता है कि कांग्रेस ने खुद ही यह तय कर लिया था कि उसे इस दौड़ में आगे नहीं जाना। शायद कांग्रेसी मोदी की हार के लिए केजरीवाल की जीत को बर्दाश्त करने के लिए भी तैयार हो गए। बीजेपी के लिए बिहार और बंगाल की चुनौतियां दिल्ली के बाद और भी मुश्किल बन जाएंगी। साथ ही, केजरीवाल राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा नाम बनकर उभरें, इसकी संभावनाएं भी बन रही हैं।
दिलबर गोठी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)