क्या बनाना है और कहां बेचना है, कोरोना ने इनके बारे में धारणाएं बदल दी हैं। यह अच्छा लगे या न लगे, पर अब मेट्रो शहरों की तुलना में ग्रामीण इलाकों, छोटे शहरों और टियर-टू और टियर-थ्री शहरों में इन दिनों ज्यादा कमाई हो रही है। ये उदाहरण देखिए। पहली कहानी: कम से कम ग्रामीण भारत में तो ‘सब्जियां खुद खरीदो’ की जगह अब ‘सब्जियां खुद तोड़ो’ ने ले ली है। अगर आप मुंबई-गोवा, मुंबई-इंदौर, नासिक-पुणे या कोचिन-थ्रिस्सूर का सफर रोड से करेंगे तो देखेंगे कि आस-पास के शहरों के लोग खुद की सब्जियां तोड़ने जा रहे हैं। सड़क किनारे बने इन ऑर्गनिक बगीचों में कोई दीवार या बाउंड्री नहीं है। मेन रोड से 15-30 फीट दूर सब्जियों के बगीचों पर आमंत्रित करने वाले साइन बोर्ड पर लिखा है, ‘आइए, अपनी सब्जियां खुद तोड़िए’। आपको पगडंडी से होते हुए जाना पड़ता है लेकिन फिर भी आपको मिट्टी की खुशबू अच्छी लगेगी और हरियाली आंखों को सुकून देगी। बच्चे, जिन्हें लगता था कि सब्जियां फ्रिज में ऊगती हैं, उन्हें अब छोटे पौधे पर लटकते बैंगन देखने मिलते हैं।
वे अब जानते हैं कि ये कहां से आते हैं, साथ ही उन्हें पता है कि ये सब्जियां अलग-अलग रंगों में भी आती हैं। केरल के थ्रिसूर के पास रहने वाले अनिलकुमार कत्तिल का उदाहरण ले लीजिए जो लॉकडाउन से पहले टूरिस्ट बस ड्राइवर थे और नौकरी जाने के बाद पूरी तरह रोडसाइड फार्मिंग करने लगे हैं। किसानी की कोई पृष्ठभूमि और जमीन न होने के बावजूद वे खाली पड़ी बेकार जमीन पर ग्रो बैग्स (प्लास्टिक के बैग जैसे गमले) में सब्जियां ऊगा रहे हैं। स्थानीय पंचायत भी उन्हें बढ़ावा दे रही है क्योंकि इससे लोगों ने उस इलाके में कचरा फेंकना बंद कर दिया है। आज 55 वर्षीय पूर्व बस ड्राइवर म्युनिसिपल की अविकसित जमीन पर बैंगन, हरी मिर्च, भिंडी, अदरक, लौकी जैसी कई सब्जियां ऊगाकर बेच रहे हैं। दूसरी कहानी: महामारी की वजह से पिछले छह महीनों से घरों में ही सीमित हजारों लोगों को ब्रेक लेने के लिए शहर के नजदीक फार्महाउस, प्राइवेट विला किराए पर लेना एक अच्छा विकल्प बन गया है। ऐसे परिवारों के लिए पुरानी कहावत सही साबित हो रही है कि ‘जो परिवार एक साथ स्वस्थ होते हैं (पढ़ें आनंद लेते हैं), वे हमेशा साथ रहते हैं’।
पिछले तीन महीनों में किराए पर ऐसी जगहों की मांग तेजी से बढ़ी है क्योंकि ज्यादातर लोग होटलों में रहने से बच रहे हैं। एक फार्महाउस पूरी प्रॉपर्टी के इस्तेमाल की आजादी देता है। प्रॉपर्टी मालिकों को बेहतर कीमतें और सातों दिन की बुकिंग मिल रही हैं। जबकि मार्च से पहले ज्यादातर वीकेंड पर बुकिंग होती थी। होटलें अब भी ग्राहकों की संख्या बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं, जबकि कुछ जगहों पर फार्महाउस और स्वतंत्र बंगले साल के अंत तक के लिए बुक हो चुके हैं। पिछले तीन महीनों में इन फार्महाउस में लगभग 60-70% ऑक्यूपेंसी रही है। तीसरी कहानी: पिछले कुछ महीनों में देश में ज्यादातर पालतू जानवर (पैट्स) मेट्रो शहरों से छोटे शहरों में आ गए हैं। केवल एयर इंडिया ही करीब 2000 पैट्स को सफर करा चुकी है, जबकि एसी वाली गाड़ियों से भी ढेरों पैट्स अपने हैंडलर (संभालने वाले) के साथ सफर कर अलग-अलग राज्यों में गए हैं। हाल ही में विशेषज्ञ पैट मूवर्स का बिजनेस भी तेजी से बढ़ा है। फंडा यह है कि वे दिन गए जब लोगों को लगता था कि पैसा सिर्फ बड़े शहरों में कमा सकते हैं। अब छोटे शहर कमाई का नया ठिकाना बन रहे हैं।
धैर्य, दयाभाव और सहानुभूति रखें: इस शनिवार मैं कार में पीछे बैठा अपने लैपटॉप पर व्यस्त था। मेरा ड्राइवर असर हॉर्न नहीं बजाता और हॉर्न बजाने वालों को रास्ता देता है क्योंकि वह जानता है कि मैं डिस्टर्ब होता हूं। अचानक मैंने सुना कि मेरा ड्राइवर चिढ़कर हॉर्न बजा रहा है योंकि उसके आगे की कार काफी धीमे चल रही थी और रास्ता नहीं दे रही थी। मैं अपना आपा खोने ही वाला था कि मैंने देखा कि कार के पीछे छोटासा लेबल (स्टीकर) लगा है- ‘फिजिकली चैलेंज्ड; प्लीज बी पेशेंट’ (दिव्यांग व्यति; कृपया धैर्य रखें)। इससे में शांत हो गया। मैंने ड्राइवर को समझाया लेकिन वह मुझसे सहमत नहीं हुआ। उसने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि वह दिव्यांग है और न ही कार ऐसी दिख रही है।’ मैंने उससे मजाक में कहा, ‘मैं ऑटोमोबाइल के बारे में तुहारी जीके की परीक्षा बाद में लूंगा, अभी हॉर्न बजाना बंद करो।’कुछ मिनट बाद हमारे आगे जा रही कार दाएं मुड़ी और एक ढाबे पर रुकी। मैंने भी ड्राइवर से ब्रेक लेने को कहा। यह देख हमें आश्चर्य हुआ कि उस कार का ड्राइवर ‘दिव्यांग’ नहीं दिख रहा था। मेरा ड्राइवर मेरी ओर देखकर तपाक से बोला, ‘देखो साहेब, मैंने बोला था न?’
मैंने उसे यह भूलकर दो कप चाय का ऑर्डर देने को कहा। मैं अपनी टेबल साफ करवाकर वहां बैठा और देखा कि उस आदमी ने अपने दोनों हाथों में नाश्ता और चाय ली और सफाई की परवाह किए बगैर, मुझसे दो टेबल आगे, एक टेबल पर बैठ गया। मशगूल था, जो दृश्य भारत में आम है। जब वह टेबल से उठा तो मैं उसकी तरफ देख मुस्कुराया और बोला, ‘अब जो भी होगा, अच्छा होगा’ और उसे मेरा तर्क बताया। जाते हुए उसने मुझसे दिलासा चाहा, ‘सर, आपको पक्का यकीन है कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। ‘बेशक’, मैंने बस इतना ही कहा। उसने हाथ हिलाते हुए धन्यवाद कहा। मैंने उसे ढाबे से जाते हुए देखा। मैं देख सकता था कि उसकी चाल में फुर्ती आ गई थी और उसका आत्मविश्वास बढ़ा हुआ लग रहा था।
चूंकि मेरा ड्राइवर इंतजार कर रहा था, इसलिए मैं गाड़ी में बैठा और आगे बढ़ा। बाद में मैंने खुद से सवाल पूछा, ‘या हम लोगों के प्रति तभी अधिक धैर्यवान और दयावान होंगे, जब हम उनकी कार, शर्ट या माथे पर लेबल चिपका हुआ देखेंगे? उनमें से कितनों की लेबल चिपकाने की हिमत होगी, जैसे ‘नौकरी चली गई’ या ‘कोविड से लड़ रहा हूं’ या ‘तलाक को लेकर परेशान हूं’ या ‘भावनात्मक हिंसा का शिकार हूं’ या ‘किसी अपने को खो दिया है’ या ‘लगता है मेरा कोई मोल नहीं’ या ‘आर्थिक रूप से टूट चुका हूं’ और ऐसे ही बहुत सारे।’ फंडा यह है कि हर कोई ऐसी जंग लड़ रहा है, जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते। हम सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि धैर्य, दयाभाव और सहानुभूति रखें, योंकि हमारे आस-पास कई अदृश्य लेबल हैं।
एन. रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)