जैसे एक शिल्पकार अपने हुनर से मिट्टी से किसी भी आकृति को आकार दे सकता है, चित्रकार रंगों से किसी भी चित्र को सजीव बना सकता है,उसी तरह एक व्यंग्यकार हास्य का पुट डाल कर गंभीर से गंभीर बात को भी बेहद सहजता से कह देता है। और ये कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी की आ० संतराम पाण्डेय जी की पुस्तक “अगले जनम मोहे व्यंग्यकार ही कीजो” इस मापदंड पर बेहद ही उचित और खरी उतरती है। इन्होंने इतनी सहजता से विषयों को छुआ है की उनकी बनावट, कसावट, स्पष्टता देखते ही बनती है। उन में व्यंग्य के पुट के साथ गंभीर संवेदना भी झलकती है।
जैसे “रिश्तों में अंग्रेज़ियत” में संतराम जी कहते हैं हमारे यहां रिश्ते बहुत हैं : माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, चाचा चाची, ताऊ ताई, बुआ फूफा, देवर देवरानी, सास ससुर, साला साली, ननंद नंदोई आदि इन सब में भारतीयता और आत्मीयता झलकती थी पर नया ज़माना रिश्तों के मामले में बहुत घनचक्कर हो गया है एक आँटी और एक अंकल के संबोधन से। सब रिश्ते इन दो नामों में ही सिमट कर रह गए हैं। और नई पीढ़ी की तो बात और भी निराली है मात्र सर और मैडम के संबोधन से अपने सारे काम करवा लेते हैं। कहीं न कहीं ये इशारा करती हैं रिश्ते संबोधन से कैसे मधुर होते थे और हर रिश्ते का अपना नाम अपनी पहचान थी जो आज लुप्त हो गई है। “कोई हमको भी पेंशन दिला दे” एक किसान की अंतर व्यथा कहता है की जब वह दिन रात खेतों में मेहनत करता है तो वो सरकारी मुलाज़िमों की तरह पेंशन का हकदार नहीं। जो की एक करारा प्रहार है हमारी सामाजिक नीतियों पे की सरकारी कर्मचारी ताउम्र पेंशन पाता है और किसान उम्र भर खटता है, अन्न , सब्ज़ी से पूरे देश का पेट भरता है, क्या ये देश सेवा नहीं , उसे बुढ़ापा नहीं आता फिर क्यों वो पेंशन का हकदार नहीं। पेंशन दो तो सबको वरना किसी को नहीं एक ज्वलंत सवाल जो व्यंग्य के माध्यम से उभारा है।
“आओ !बैठे ठाले का कारोबार करें” जो ऑनलाइन फैशन पर प्रहार करता है। कैसे कंपनियां कैश बैक ऑफर्स के साथ लुभाती हैं । यानि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा और कारोबार भी पक्का। “बाथरूम संस्कृति” जिस में व्यंग्य का पुट कुछ इस तरह घर बड़ा हो न हो बाथरूम बड़ा होना चाहिए क्योंकि पठन पाठन के लिये इस से उत्तम जगह कोई नहीं तभी तो लोग घंटो अखबार लेकर वहां बैठे रहते हैं।बाथरूम से अच्छा एकांत स्थल कोई नहीं और ज्ञान दो ही जगह मिलता है या शमशान में या बाथरूम में।
“एक जुगाड़ू देश” जितना जुगाड़ रोटी से लेकर चिता जलाने तक लोग ज़िन्दगी भर भारत मे करते हैं उतना किसी अन्य देश में नहीं होता। हर काम , हर सिस्टम , हर पार्टी, हर नीति जुगाड़ से ही चलती है और विडंबना ये है जिसे के पास जुगाड़ नहीं उसका जीवन ही आज की भौतिक संस्कृति में पिछड़ जाएगा। और वास्तव में भारत की इतनी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण जुगाड़ू मानसिकता है फिर चाहे वो जुगाड़ रोजी रोटी का हो, व्यवसाय, वकालत,डॉक्टरी,शिक्षा इंजीनियरिंग या किसी भी अन्य क्षेत्र में। जुगाड़ ही सब कुछ है-पूजनीय, अर्चनीय, नमनीय।
इसी तरह संतराम जी की अन्य रचनाएँ “दाढ़ी -चश्मे पर नो कमेंट”, “अज्ञानियों की बहस”, “रिक्शे का तीसरा पहिया”, “पत्रकारों की सदगति”, “लड़कों को तो गच्चा खाना ही था” बेहद ही खूबसूरत बन पड़ीं हैं।। “लेने-देने की पद्वति-थैली” जिस में कहा गया है भ्र्ष्टाचार का एक अलग ही मुखोटा है, धन चाहे रिश्वत हो या दान थैलियों में ही शोभा देती है। ब्रीफ़केस भ्रष्टाचार का मुखोटा लगता है और थैली में पवित्रता है, रहस्य है, शालीनता है। कुछ भी दो कुछ भी लो थैली में हो। शायद इस बात से इशारा करना चाहते हैं की एक पारदर्शिता रहे आप जो भी काम करें। एक तीखा प्रहार व्यंग्य के माध्यम से।
“आओ आंदोलन करें”,”अरे मूरख संभल , नहीं तो….”, “आपरेशन की सार्थकता”, “हे जनता जनार्दन:पहले खुद को बदलो”, “नेता आसमान से टपका”,”रेखाओं की असली असलियत”, “धर्म के मर्म अलग-अलग”, “तुम्हारे तवे पर मेरी रोटी”, “ये दिल्ली भागी भागी सी”, ये सभी रचनाएँ व्यंग्य के माध्यम से हमारे आस पास, समाज और देश में घटित होती बातों पर केंद्र बिंदु अंकित करती हैं। जिसे संतराम जी ने बेहद ही सहजता से प्रस्तुत किया है। और इनकी केंद्रीय रचना “अगले जन्म मोहे व्यंग्यकार ही कीजो”जिस में अगले जन्म भी व्यंग्यकार बनने की इच्छा ज़ाहिर की है। क्योंकि व्यंग्यकार बनने के काफी फायदे हैं उसकी कोई विधा नहीं होती, मात्राओं की बाध्यता नहीं होती और वह कुछ भी कह सकता है उसे सब माफ होता है। लेखक खुद व्यंग्यकार नहीं होता उसमें व्यंग्यकार की आत्मा होती है।
“राजू!ये है हमारी पुलिस!” पुलिस बहुत अच्छी होती है, पुलिस का साथ न हो तो अकेले ही रह जाएं। केवल अपराधों या न्याय व्यवस्था के लिए ही पुलिस को सीमित नहीं रखना चाहिए। आखिर वह भी इंसान हैं हमारी पुलिस।
“गोल,चौकोर,गुम्बदाकार समस्याएं” निश्चित ही समस्याओं का विभिन्न आकार होता है लम्बी, गोल,चौकोर, गुम्बद के आकार की बनी, अधबनी समस्याएं। आकार की तरह समस्याओं के और भी रूप हैं राजनीतिक , सामाजिक , घरेलू, आफिसिय ,सरकारी, गैर सरकारी, निजी, सार्वजनिक, मादा, नर। इस तरह सबकी अपनी अपनी समस्याएं जिनका खूबसूरती से उल्लेख व्यंग्य के पुट के साथ बखूबी किया गया है।
“मूर्खता की किस्मे”, “और मैं सीरियस हो गया”,”नो कमेंट”,” जागिये फेविकोल गायब हो रहा है”,”नेताओं की आस्था”,”कैसे गिरती है संस्कृति”, “कहां खो गये शहजादे और बादशाह”, “ऊपरी कमाई की मलाई “, “बोलिए और क्या चाहिए बजट में”, “चोला बदल दो”, “कितना बदल गया भगवान”, “अपहरणकर्ता का इंटरव्यू”, “हमारी हर चीज़ नपी तुली है”, “नंगा होने की होड़”,” सारे जहां में मिलावट का राज”, “ट्रैफिक कंट्रोल का सपना”, “ग्रह दशा ठीक नहीं है” सभी रचनाएँ व्यंग्य के पुट के साथ सामाजिक और आपसी तालमेल पर करारा प्रहार करती हैं।
ये कहना बिल्कुल भी गलत न होगा आ० संतराम पाण्डेय जी की ये पुस्तक वाकई काबिले तारीफ है, हर लेख दिलचस्प और पठनीय है जिसमें व्यंग्य के माध्यम से चेतना को जगाने का प्रयास किया गया है। पुस्तक की साज सज्जा को बेहतर बनाने में प्रकाशक प्रखर गूंज ने पूरी मेहनत की है। जितनी सादगी पुस्तक के आवरण में दिखाई देती है, सामग्री में उतनी ही रोचकता है।
अनेको बधाई व शुभकामनाएं
आ० संतराम पाण्डेय जी को उनकी पुस्तक ” अगले जन्म मोहे व्यंग्यकार ही कीजो” ।
(व्यंग्य संग्रह)
लेखक: संतराम पाण्डेय
प्रकाशक: प्रखर गूंज पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य: २०० रुपए
समीक्षक: मीनाक्षी सुकुमारन, नोएडा