स्वतंत्र होने की पहली शर्त निर्भय होना है और आजादी का पहला सुख भी निर्भय होना ही है। जिसे भय नहीं है वहीं आजादी का सुख ले सकता है। वैसे आजादी अपने आप में सापेक्षिक शब्द है। राजनीति के विद्यार्थी इस सापेक्षता को समझते हैं। कई बार बंधनों में आजादी होती है और कई तरह की आजादी ऐसी होती है, जो लोगों को बंधनों में बांध देती है। जैसे एक बच्चा सुबह से बंधनों में होता है, उसे समय पर जगना होता है, तैयार होकर स्कूल जाना होता है, लौट कर होमवर्क करने हैं, समय पर खाना है, सोना है या खेलने जाना है। इससे अलग एक दूसरा बच्चा होता है, जो सारे समय अपने मन की करने के लिए आजाद होता है। वह सुबह खेलने निकल जाता है, नहाने-खाने किसी चीज के रूटीन को फॉलो नहीं करता है, स्कूल नहीं जाता है, होमवर्क नहीं करता है। इन दोनों में से असली आजादी किसकी है? असली आजादी उसकी है, जो बंधनों में है। इस तरह के बंधन आजीवन होते हैं, जिसके लिए मशहूर दार्शनिक ज्यां जैक रूसो ने कहा था- मनुष्य आजाद पैदा होता है पर जीवन भर बेड़ियों में जकड़ा होता है। आजादी और बेड़ियों में जकड़ा होना दोनों साथ साथ चल सकते हैं। पर भय और आजादी साथ साथ नहीं चलते हैं। जहां भय है वहां आजादी किसी स्थिति में नहीं हो सकती है और अगर आजादी है तो भय के लिए कोई जगह नहीं होती है।
पिछली सदी में आजादी की लड़ाई का मूलमंत्र निर्भय होना ही था। महात्मा गांधी ने सबसे पहले लोगों के मन से भय खत्म किया था। उन्होंने अंग्रेजों की बर्बरता के आगे हिम्मत के साथ खड़े होने के लिए भारतीयों को तैयार किया। वे खुद दक्षिण अफ्रीका से भय मुक्त होकर लौटे थे पर उन्हें पता था कि भारत के लोग अंग्रेजी हुकूमत से या पुलिस की लाल पगड़ी से कितना डरते हैं। उन दिनों आज की तरह पुलिस की व्यवस्था नहीं थी और न कोई आधुनिक तकनीक थी, पुलिस के पास गाड़ियां या हथियार नहीं होते थे पर उनकी लाल पगड़ी देख कर गांव के गांव खाली हो जाते थे। भारतीयों के इस भय को ही पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने और फिर अंग्रेजी हुकूमत ने अपने साम्राज्य विस्तार का हथियार बनाया। गांधी ने भारत आकर सबसे पहले लोगों के इस भय को खत्म किया। इक्का-दुक्का लोगों का भय नहीं, सामूहिक रूप से, हर भारतीय के मन से उन्होंने भय को निकाला। चंपारण उनके इस प्रयोग की धरती थी। इसके लिए उन्होंने बहुत छोटे प्रतीकों का इस्तेमाल किया। गांधी ने अपने बैठने के लिए एक टेबल और दो कुर्सियां मांगी थीं। अंग्रेजों ने उनके लिए तीन कुर्सी भेजी, जिसमें एक पर अंग्रेज अधिकारी बैठ कर देखता रहता था कि गांधी क्या क्या करते हैं। इसके जरिए गांधी ने चंपारण के लोगों के मन में यह बात बैठाई कि अंग्रेजों से डरने की जरूरत नहीं है।
इसी तरह एक मामूली घटना के बाद जेबी कृपलानी के जेल जाने की नौबत आ गई थी। तब कृपलानी ने 30 रुपए का जुर्माना भर कर छूटने की बात कही, जिस पर गांधी ने उनसे कहा कि वे जुर्माने की रकम उन्हें दे दें और खुद 15 दिन के लिए जेल चले जाएं। जब कृपलानी ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों तो गांधी का कहना था कि यहां लोग जेल जाने से बहुत डरते हैं अगर कृपलानी जैसा आदमी जेल जाएगा तो लोगों का डर खत्म होगा। सोचें, गांधी ने आजादी के आंदोलन के एक बड़े नेता को जेल भेज कर लोगों के मन से जेल का डर निकाला था। पर आज जेल जाने के डर ने लोगों को ऐसा डराया है, जैसा अंग्रेजों के राज में भी लोग नहीं डरे होंगे। यह डर इसलिए है क्योंकि किसी को न्याय होने का भरोसा नहीं है। यहां पिछले 73 साल में ऐसी व्यवस्था बनाई गई है, जिसमें न्याय के सामने सब एक समान नहीं हैं। फिर ऐसे डरे हुए समाज में आजादी का भला क्या मतलब होगा? यहां पुलिस, अधिकारी, नेता सब एक जैसी धमकी देते हैं- जेल भिजवा देंगे, पकड़ कर अंदर कर देंगे, सारी जिंदगी जेल की चक्की पीसते रहोगे आदि आदि।
इन दिनों ‘ठोक देंगे’ का एक नया जुमला आ गया है। तभी यहां लोग अपराधी से कम और पुलिस से ज्यादा डरते हैं। बीमारी से कम अस्पताल से ज्यादा डरते हैं। अपराध करने से कम और अदालत से ज्यादा डरते हैं। नौकरी पाने की चिंता से ज्यादा डर नौकरी गंवाने का होता है। सड़क पर आराम से यात्रा की बजाय कुचल कर मर जाने का डर ज्यादा रहता है। दवा खाकर ठीक होने के भरोसे से ज्यादा नकली दवा से और बीमार हो जाने का डर होता है। खान-पान की चीजों में मिलावट का डर अलग है। छोटी बच्चियों को स्कूल भेजते हुए अभिभावक इस चिंता में रहते हैं कि कहीं उसके साथ किसी तरह की बर्बरता न हो जाए। कुल मिला कर हर आदमी भय और चिंता में है। वह रोज सकुशल घर लौट आता है या नौकरी बची रह जाती है, बच्चे स्कूल से लौट आते हैं तो वह भगवान को धन्यवाद देता है। उसका जीवन देश में बनाई आजाद व्यवस्था के नहीं, भगवान के भरोसे सुरक्षित है।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)