सौतेली मां से मिला अपमान तो बालक ध्रुव ने भगवान विष्णु को तपस्या से किया प्रसन्न

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हिंदू धर्म ग्रंथों में ऐसे बच्चों की कथाएं हैं जिन्होंने कम उम्र में ही बड़े काम किए हैं। जिनसे कुछ न कुछ शिक्षा मिलती है। प्रहल्लाद, ध्रुव, एक लव्य और आरूणि जैसे अन्य बच्चों की कथाओं से पता चलता है कि इन्होंने कुछ ऐसे काम किए, जिन्हें करना किसी के बस में नहीं था, लेकिन अपनी ईमानदारी, निष्ठा व समर्पण के बल पर उन्होंने मुश्किल काम भी बहुत आसानी से कर दिए।

भक्त प्रह्लाद :- बालक प्रह्लाद की कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु दैत्यों के राजा थे। वह भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था, परंतु प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। जब यह बात हिरण्यकश्यपु को पता चली तो उसने प्रह्लाद पर अनेक अत्याचार क ए, लेकिन फिर भी प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति कम न हुई। अंत में स्वयं भगवान विष्णु प्रह्लाद की रक्षा के लिए नृसिंह अवतार लेकर प्रकट हुए। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यपु का वध कर दिया।

बालक ध्रुव :- श्रीमद्भागवत में बालक ध्रुव की कथा है। इसके अनुसार, ध्रुव के पिता का नाम उत्तानपाद की दो पत्नियां थीं। सुनीति और सुरुचि। ध्रुव सुनीति का पुत्र था। एक बार सुरुचि ने बालक ध्रुव को यह कहकर राजा उत्तानपाद की गोद से उतार दिया कि मेरे गर्भ से पैदा होने वाला ही गोद और सिंहासन का अधिकारी है। बालक ध्रुव अपनी मां सुनीति के पास पहुंचा। मां ने उसे भगवान की भक्ति के माध्यम से ही लोक -परलोक के सुख पाने का रास्ता सूझाया। फिर ध्रुव ने घर छोड़ दिया और वन में देवर्षि नारद की कृपा से “ऊं नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र की दीक्षा ली। यमुना नदी के किनारे मधुवन में बालक ध्रुव ने तप किया। इतने छोटे बालक की तपस्या से खुश होकर भगवान विष्णु ने बालक ध्रुव को ध्रुवलोक प्रदान कि या। आकाश में दिखाई देने वाला ध्रुव तारा बालक ध्रुव का ही प्रतीक है।

गुरुभक्त एकलव्य:- एकलव्य की कथा महाभारत में है। उसके अनुसार, एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने गया था, लेकिन राजवंश का न होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। तब एक लव्य ने द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाकर उसे गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास किया। एक बार गुरु द्रोणाचार्य के साथ सभी राजकुमार शिकार के लिए वन में गए। वहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। अगयास के दौरान कुत्तों के भौंकने पर एक लव्य ने अपने बाणों से कुत्तों का मुंह बंद कर दिया। जब द्रोणाचार्य व राजकुमारों ने कुत्तों को देखा तो उस धनुर्धर को ढूंढने लगे, जिसने इतनी कुशलता से बाण चलाए थे। एक लव्य को ढूंढने पर द्रोणाचार्य ने उससे उसके गुरु के बारे में पूछा। एक लव्य ने बताया कि उसने प्रतिमा के रूप में ही द्रोणाचार्य को अपना गुरु माना है। तब गुरु द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में एक लव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना कुछ सोचे अपने अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया।

मार्कण्डेय ऋषि :- ग्रंथों के अनुसार, मार्कण्डेय ऋषि अमर हैं। आठ अमर लोगों में मार्कण्डेय ऋषि का भी नाम आता है। इनके पिता मर्कण्डु ऋषि थे। जब मर्कण्डु ऋषि को कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की और शिवजी से पुत्र मांगा। शिवजी ने पूछा कि उन्हें गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहिए या गुणवान 16 साल का अल्पायु पुत्र। तब मर्कण्डु ऋषि ने अल्पायु और गुणी पुत्र चाहा। भगवान शिव ने उन्हें पुत्र का वरदान दिया। उनके पुत्र मार्कंडेय हुए। मार्कण्ंडेय 16 साल के होने पर अपनी मृत्यु के बारे में जानकर वे विचलित नहीं हुए और शिव भक्ति में लीन हो गए। इस दौरान सप्तऋषियों की सहायता से ब्रह्मदेव से उनको महामृत्युंजय मंत्र की दीक्षा मिली। इस मंत्र के प्रभाव से स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गए और मार्कण्डेय ऋषि को यमराज से बचाया। इसके बाद बालक मार्कण्डेय की भक्ति देखकर भगवान शिव ने उन्हें अमर होने का वरदान दिया।

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