कांग्रेस के निकटतम सलाहकार सैम पित्रोदा के सिख दंगे पर जाता बयान को लेकर सियासत गरमा गई है। उन्होंने एक सावल के जवाब में कहा कि हुआ तो हुआ…। हालांकि उनकी मंशा सिर्फ इतनी थी कि जो हो चुका उसे बदला तो नहीं जा सकता। लेकिन चुनावी मौसम में पार्टियां अपने हिसाब से मतलब निकाल ही लेती हैं। भाजपा और शिरोमणि अकाली दल के नेताओं ने पित्रोदा के बयान को पूरे सिख समुदाय के बरसों पुराने जगमों पर नमक छिडक़ने जैसा बताया है। आम चुनाव के बाकी दो चरणों में भाजपा को इस मुद्दे से कुछ फायदा मिलने की उम्मीद बंधी है इसीलिए राष्ट्रीय राजधानी में सडक़ों पर उतरने के साथ ही सैम पित्रोदा को पार्टी से निकाले जाने की मांग भी उठने लगी है।
यह सच है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो कुछ दिल्ली समेत देश भर में सिखों के साथ हुआ, वो भारतीय इतिहास का काला अध्याय कहा जाएगा। जिस तरह 2002 में गुजरात में सुनियोजित ढंग से एक विशेष सम्प्रदाय के लोगों की हत्या हुई थी और उससे आज तक प्रभावित परिवारों का घाव नहीं भर पाया है, वैसी ही स्थिति सिख समुदाय की भी है। 12 मई को छठे चरण का मतदान होना है और इससे ठीक दो दिन पहले पुराने घावों को हरा- भरा रखने की जो सियासी कवायद हो रही है, वो हैरान करती है। ठीक है, सैम पित्रोदा को अपने बयान को गलत ढंग से समझे जाने के बावजूद माफी मांग लेनी चाहिए और पार्टी को भी किसी निर्णय तक पहुंचता हुआ दिखना चाहिए।
सियासी उबाल पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की खामोशी से विपक्ष के मंसूबे को ताकत मिलती है, यह बात समझी जानी चाहिए। खासकर चुनावी दिनों में फ्रीलांस नेताओं को समझा दिया जाना चाहिए कि तब तक के लिए ना बोलें तो पार्टी के लिए ज्यादा हितप्रद होगा। पिछले चुनाव में मणिशंकर अय्यर के नीच शब्द का इस्तेमाल करने पर भाजपा ने जीभर के सियासी फायदा उठाया था और यही कोशिश सैम पित्रोदा के बयान को लेकर भी हो रही है। ऐसे मौकों की संवेदनशीलता को पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह बखूबी समझते हैं, इसीलिए उन्होंने पित्रोदा के बयान का बचाव करने के बजाए यह स्वीकार किया कि 1984 में हुए सिख दंगे में कांग्रेस के शीर्ष पांच नेताओं का हाथ था। सज्जन कुमार को तो सजा हो चुकी है।
एचके एल भगत अब दुनिया में मौजूद नहीं हैं। तीन नाम और हैं जिनका नाम उन्हें याद नहीं अथवा उसका वे जिक्र नहीं करना चाहते। इसके बावजूद उन्हें पता है कि सैम का बयान पंजाब में होने वाले मतदान पर बुरा असर डाल सकता है, इसलिए बिना देरी किये उनकी तरफ से सधी प्रक्रिया सामने आई है। इस सबके बीच यह सवाल भी सही है कि भाजपा वास्तविक मुद्दों से वोटरों का ध्यान बंटाना चाहती है जबकि विपक्ष बार-बार पूछ रहा है कि 2014 में किये गये वादों का क्या हुआ? जब यह साफ हो चला है कि भाजपा अपनी जवाबदेही पर पर्दा डालने के लिए 84 के दंगों का प्रमुखता से जिक्र कर रही है, तब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व क्यों नहीं अपनी खामोशी तोड़ रहा? एक बार फिर मांफी मांग लेने में भला कौन-सा हर्ज? डॉ. मनमोहन सिंह सिख दंगे के लिए जरूर पिछले वर्षों में कांग्रेस की तरफ से माफी मांग चुके हैं।