संसदीय मर्यादा जरूरी

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संसद में विरोध के नाम पर जो हुआ उसने सिर्फ और सिर्फ लोकतंत्र के मंदिर को कलंकित ही किया है। देश जहां आजादी का जश्न मनाने की तैयारी कर रहा है और स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, उससे ठीक पहले संसद से आई एक तस्वीर ने हमारे लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को दागदार किया है। किसी ने भी राज्यसभा में ऐसी घटना की उमीद भी नहीं की होगी, जिसमें सांसदों व मार्शलों के बीच धका मुकी तस्वीर में साफ दिखाई दे रही है। शर्मसार करने वाली बात यह है कि राज्यसभा की इस घटना पर किसी भी सांसद को अफसोस नहीं है, उल्टे इसको लेकर भी वे राजनीति कर रहे हैं।

ईमानदारी से कोई भी पक्ष अपनी गलती मानने के लिए तैयार नहीं है। विपक्ष कह रहा है कि संसद में मार्शल लॉ लगाकर मारपीट की गई तो सरकार कह रही है कि विपक्ष के सांसदों ने मार्शल से मारपीट की है। कांग्रेस ने 15 विपक्षी दलों के साथ संसद से विजय चौक तक इस मसले के विरोध में पैदल मार्च किया और सरकार पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाया तो सरकार ने कहा कि विपक्ष का एजेंडा सिर्फ अडंगा लगाना है, संसद में मानसून सत्र के दौरान विपक्ष के अलोकतांत्रिक और हिंसक व्यवहार ने भारतीय लोकतंत्र के काले अध्याय की कहानी लिखी।

दरअसल विपक्ष के हंगामे के चलते राज्यसभा को समय से पहले ही अनिश्चितकालीन स्थगित करना पड़ा है। आखिर सांसद का मूल काम ही कानून बनाना है, वे अपनी इस जिमेदारी को कब समझेंगे, कब वे अपनी जिमेदारी के प्रति ईमानदार होंगे? क्या सांसद संसद को अपने दलों की राजनीति का अखाड़ा बनाए रखेंगे? ये सवाल बड़े होते जा रहे हैं। इस बार मानसून सत्र में पहले दिन से ही विपक्ष ने किसान आंदोलन, पेगासस आदि मुद्दों को लेकर संसद नहीं चलने दी है।

कांग्रेस समेत दूसरे विपक्षी दलों ने लोकसभा और राज्यसभा सुचारू रूप से कभी कार्यवाही होने ही नहीं दी। इससे सरकार चाहकर भी मनमाफिक विधेयक पास नहीं करवा पाई। हंगामे के बीच थोड़े बहुत विधेयक पास भी हुए तो विपक्ष ने सरकार पर एक तरफा बिना बहस पास कराने के आरोप लगाए। यह दीगर बात है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार मिनटों में विधेयक पारित कराने में पीछे नहीं थी। यूपीए सरकार के 2006 और 2014 के बीच 18 विधेयक हंगामे व शोर-शराबे के बीच दो से चौदह मिनट में पारित हुए थे।

2006 में दो, 2007 में ग्यारह, 2010 में तीन, 2011 में एक और 2014 में भी एक विधेयक हंगामे में पास हुए थे। मानसून सत्र के शुरू होने के वत से सरकार विपक्ष को हर मुद्दे पर स्वस्थ चर्चा के लिए आत्रित करती रही है, लेकिन कांग्रेस ने जैसे ठान रखा हो हो कि संसद नहीं चलने देनी है। लगा जैसे विपक्ष का चर्चा में कोई इंट्रेस्ट ही नहीं था और उन्होंने पहले से ही तय कर रखा हो कि संसद को बाधित करना है। मीडिया के एक वर्ग की ओर से कथित पेगासस जासूसी के खुलासे को आधार बना कर कांग्रेस का संसद नहीं चलने देना अपने संसदीय दायित्व के प्रति कृतघ्नता जैसी है। संसद में धकामुकी की घटना की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए, जिनकी भी गलती हो, उनको देश से माफी मांगनी चाहिए।

यह सही है कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने भी यूपीए सरकार के कई सत्र बाधित किए थे, कई बार संसद ठप किए थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि विपक्ष अपना संसदीय धर्म बना ले कि संसद नहीं चलने देना है। वर्तमान में विपक्षी राजनीति काजो स्वरूप विकसित हो चुका है, उसे देखते हुए सरकार को एक मैकेनिज्म बनाने की जरूरत है, जिसमें यह तय हो सके कि संसद की कार्रवाई निर्वाध व शांतिपूर्ण चल सके। इसमें जहां सरकार को लचीला रुख अपनाने की बाध्यता होए वही विपक्ष की संसदीय जिमेदारी भी तय हो। कानून निर्माण व संशोधन के लिए कार्यपालिका को काम करना ही होगा। संसद की गरिमा को नष्ट करने का हक किसी को नहीं है।

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