शिवसेना को न मिला राम, न रहीम

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आखिरकार वह हुआ जिसकी आशा नहीं थी। सत्ता के लोभ में शिवसेना को न तो राम मिले और न ही रहीम। अपने परम्परागत तथा वैचारिक सहयोगी को नकारने का परिणाम यह निकला कि वह न तो एनडीए में रही और न ही महाराष्ट्र के सत्ता केंद्र में। राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर भाजपा ने राज्य की सत्ता पर अधिकार कर लिया है। अब भविष्य में भी यह आशा नहीं की जा सकती कि वह भाजपा के साथ उसकी महायुति बन सकती है। असल में, शिवसेना के वर्तमान नेतृत्व ने अपने प्रति ही विद्रोह किया है, इसके राजनीति दुष्परिणाम समयानुसार दिखाई देंगे। मूल शिवसेना और उद्घव ठाकरे की शिव सेना में आधारभूत अंतर दिखाई दे रहा है। बाल ठाकरे जैसा व्यक्तित्व साहसी और निर्भय, प्रत्येक कथन तार्किक तथा सामाजिक जीवन की शुचिता को स्पर्श करता हुआए पर, ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र की वर्तमान राजनीति में शिवसेना ने उनके विचारों तथा कार्यक्रमों का विसर्जन कर दिया था, तब ही वह दीनता की स्थिति में आ गई है। बाल ठाकरे ने भारतीय राजनीति में एक प्रखर हिंदुत्व की आधारशिला रखी थी। राजनीति में स्पष्टता के संस्कार उनकी ही देन थी, जो उन तक ही समिति रही। वे भौतिक रूप उपस्थित नहीं है लेकिन उनके राजनीति तेवर आज भी करोड़ों लोगों की विचारधारा तथा निर्णायक क्षमता को प्रभावित करते हैं। असल में, बाल ठाकरे एक राजनेता नहीं, अपितु सामाजिक क्रांतिकारी थे। वे अच्छे विचारक तथा हस्तसिद्घ कार्टूनिस्ट थे। कार्टूनिस्ट किसी भी विषय को बहुत गहराई से समझने की क्षमता रखता है।

सन 1960 में उन्होंने पहली बार सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। यह प्रवेश भी बहुत धमाके दार रहा। मराठी मानुष्य की अस्मिता के लिए उनका संघर्ष के वल मंचों तथा सडक़ों पर ही नहीं था, बल्कि पत्रकारिता में भी था। उन्होंने मार्मिक नामक पत्रकारिता का प्रकाशन आरम्भ किया। ऊपरी तौर पर यह पत्रिका मराठी अस्मिता पर आधारित अवश्य थी, लेकिन इसका एक संदेश देश के असंतुलित विकास की ओर भी था। उन्होंने पहली बार इस प्रश्न को उठाया कि रोजगार की तलाश में पलायन क्यों होता है और स्थानीय लोगों को रोजगार से दूर क्यों रखा जाता है। यह एक जटिल प्रश्न था। बम्बई में केवल बम्बईकरों को ही रोजगार मिले, इस अभियान को उन्होंने आक्रमक तरीके से चलाया। इसका एक प्रभाव तो हुआ कि विभिन्न राज्य सरकारें स्थानीय लोगों को रोजगार देने के लिए सकारात्मक पहल क रने लगी। इसके परिणाम भी सामने आने लगे। एक समय था जब दक्षिण भारत से शिक्षित लोगों का पलायन तेजी के साथ हो रहा थाए महाराष्ट्र की आर्थिक गतिविधियों पर उनका ही नियंत्रण था। मराठी युवा पीढ़ी निराश थी। बाल ठाकरे ने उनकी इस निराशा को अपना हथियार बना लिया। उस समय बाल ठाकरे केवल एक सामाजिक कार्यकत्ता थे इसलिए विभिन्न पार्टी के समर्थक उनके कार्यक्रत्ता होते चले गए। उन्होंने समाज के उस आर्थिक पक्ष को स्पर्श करने का प्रयास किया जो रोजगार से जुड़ा था।

वे दो तरीके से इस अभियान को चला रहे थे, पहला औद्योगिक क्षेत्रों में बेरोजगार मराठी युवाओं को समायोजित करने के लिए संघर्ष करनाए दूसरा उनके लिए स्वरोजगार की परिस्थिति पैदा करना। अभियान आगे चला तो उन्होंने ने 19 जून 1966 को शिवसेना की नींव रखी थी। शिवसेना नाम इसलिए कि हिंदूराष्ट्र के प्रथम योजनाकार शिवाजी की विचारधारा के आधार पर राजनीति करना और सामाजिक चेतना को विस्तार देना था। उनका कहना था कि अस्सी प्रतिशत कार्य समाज के लिए बीस प्रतिशत कार्य राजनीति के लिए। इसका अर्थ साफ है कि उन्होंने शिवसेना का गठन सत्ता के लिए नहीं किया था। वे एक ऐसे निर्भीक समाज की संरचना के पक्ष में थे जो अल्पसंख्यक वाद को चुनौती दे सके और अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए सदा तैयार रहे। इसलिए ही उन्होंने हिंदुत्व को राष्ट्रीय अस्मिता से जोडक़र परिभाषित किया और ऐसे दलों से दूरी बनाकर रखी जो हिंदुत्व के एक गाली के रूप में देखते थे। एक बार एक पत्रकार ने साक्षात्कार लेते समय उनसे प्रश्न किया कि आप हिंदूवादी नेता है, इस पर क्या कहेंगे। बाल ठाकरे ने उत्तर दिया कि आपसे किसने कह दिया कि मैं हिंदूवादी नेता हूं। मैं हिंदूवादी नेता नहीं हूं, मैं कट्टर हिंदूवादी हूं। अब आप अपनी जानकारी में सुधार कर लें।

यह था बाल ठाकरे का पारदर्शी तथा स्पष्ट व्यक्तित्व। वर्तमान शिवसेना का राजनीतिक चरित्र बाल ठाकरे की कार्ययोजना तथा वैचारिकी से मेल नहीं खाता। फिलहाल भाजपा सत्ता में आ गई है। भले ही शरद पवार यह कहें कि अजित पवार ने भाजपा को समर्थन देने के लिए उनसे अनुमति नहीं ली, लेकिन सत्य यह है कि शिवसेना इस प्रकरण से अपनी सारी गरिमा को नष्ट कर चुकी है। सत्ता तो मिली नहीं लेकिन यह प्रमाणित हो गया कि शिवसेना सत्ता पाने के लिए मुस्लिम आरक्षण को भी स्वीकार कर सकती है। वह वीर सावरकर को भी नकार सकती है। बाल ठाकरे कभी नहीं चाहते थे कि सोनिया कांग्रेस से किसी भी प्रकार की बातचीत हो, इस संदर्भ में उन्होंने एक बार बहुत ही कठोर बयान भी दिया था। वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम में बाल ठाकरे का यह संकल्प भी टूट गया। वे नेहरू परिवार के नाम पर बनी संस्थाओं तथा भवनों के प्रखर विरोधी थे। लेकिन महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए जो महत्वपूर्ण बैठकें की गई, वे मुम्बई के नेहरू केंद्र में ही की गई। शरद पवार की रणनीति यह रही कि शिवसेना जिन जिन कार्यक्रमों की विरोधी है, उन पर ही उनकी सहमति ली जाए। वे उद्घव ठाकरे की राजनीति महत्वाकांक्षा को सही प्रकार समझ चुके है।

आज शिवसेना इस स्थिति में चली गई है कि मतदाताओं के सामने उसकी हिंदुत्व की छवि संदिग्ध हो गई है। क्या शिवसेना अन्य दलों के नेताओं के बयानों पर ध्यान नहीं दे रही थी। राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता नवाब मलिक ने कहा था कि शत्रु का शत्रु हमारा मित्र है। भाजपा हमारी शत्रु है इसलिए शिवसेना को हम अपने साथ ला रहे हैं। महाराष्ट्र समाजवादी पार्टी के नेता अबु़ आजमी ने साफ कहा है कि हमारा ध्येय पूरा हो गया है, हमने एक शक्ति शाली गठबंधन में दरार पैदा कर दी है। हमारी पार्टी शिवसेना को समर्थन देगी। इसका अर्थ यह है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीतिक यात्रा को कमजोर करने का प्रयास है। यदि हम अतीत में जाएं तो शिवसेना को लघु से विराट बनाने में भारतीय जनता पार्टी की विशेष भूमिका है। सन 1971 में पहली बार शिवसेना लोक सभा के चुनाव में उतरी थी। लेकिन उसे 18 सालों तक कोई सफलता नहीं मिली, जब सन 1989 में भाजपा के साथ गठबंधन हुआ तो पहली बार शिवसेना का सांसद चुना गया। महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव शिवसेना ने पहली बार 1990 में लड़ा जिसमें उसके 52 विधायक चुनकर आए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि शिवसेना का विस्तार भाजपा से मेल के पश्चात ही हुआ है। लेकिन वर्तमान में शिवसेना का पराभव भी भाजपा के कारण ही हुआ। सत्ता का अतिरेक लोभ उसको अस्वाभाविक गठबंधन की ओर ले जा रहा था, जहां से उसको किसी भी प्रकार के राजनीति लाभ की आशा नहीं थी।

अशोक त्यागी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं

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