शाह का मिशन कश्मीर

0
275

देश का गृहमंत्री बनने के बाद अमित शाह का जम्मू-कश्मीर में यह पहला दौरा था। विपक्ष की भी इस बात में उत्सुकता था कि शाह का अगला कदम क्या होगा। क्योंकि गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने के बाद उन्होंने खास तौर पर जम्मू- कश्मीर के हालात की समीक्षा की थी और उसी के बाद आतंकी फंडिंग के गुनाहगारों पर शिकंजा और कसा गया, अलगाववादी नेताओं पर कडक़ रूख अपनाने का असर ये रहा कि उसी खेमे से बातचीत के जरिये राह निकाले जाने की बात सामने आने लगी। खुद जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भी अपने बयान में स्पष्ट किया था कि हुरिर्यत के नेता सरकार से बातचीत करने के इच्छुक हैं उनके इस संकेत के बाद यह कयास लगने लगा कि हो सकता है गृहमंत्री अपने दो दिववीय दौर में अलगाववादी नेताओं से मिलें और बातचीत करें। पर जिस तरह गृहमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि आतंक वाद के मामले में सरकार की कडक़ नीति जारी रहेगी।

उससे प्रतीत होता है कि हाल-फिलहाल मोदी सरकार कश्मीर नीति को लेकर अपने रुख में कोई परिवर्तन नहीं करने वाली है। गृहमंत्री ने सुरक्षा बलों से कह दिया है कि वे आतंक वाद के खिलाफ कतई बर्दाश्त नहीं करने की नीति अपनाएं और राज्य को आतंकी फंडिंग करने वालों के खिलाफ सगत कार्रवाई करें। गृहमंत्री के निर्देश से साफ है कि जब तक आतंक को जड़ से उखाड़ नहीं फेंक दिया जाएगा, तब तक कश्मीर के मसले पर कोई बातचीत नहीं होगी। इससे यह भी रेखांकित होता है कि मोदी सरकार उन्हीं लोगों से बातचीत आगे कभी करना भी चाहेग, जो भारतीय संविधान में यकीन रखते हैं और जहां तक पाकिस्तान से बातचीत का सवाल है, तो वह कश्मीर में उसकी तरफ से आतंक वाद फैलाए जाने का मसला है। जहां तक कश्मीर का सवाल है तो वो भारत का अभिन्न अंग है, इसलिए इसकी स्वायत्ता पर कोई बातचीत नहीं हो सकती। साथ ही जब तक सीमा पार से आतंक वाद जारी रखा जाना पाकिस्तान बंद नहीं करता, उससे कोई भी वार्ता नहीं हो सकती।

वैसे बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद कश्मीर नीति पर दिखी ये निरंतरता यदि ऐसे ही आगे भी बनी रहती है तो किसी उल्लेखनीय परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है। वाकई ये बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि आजादी के बाद से जम्मू-कश्मीर का मसला अनसुलझा हुआ है। जम्मू-कश्मीर में स्वायत्तता के नाम पर कुछ सिरफिरे आजादी की लड़ाई लड़ते हुए हाथ में हथियार उठा रहे हैं। ऐसे लोगों को ही पाकिस्तान की तरफ से फंडिंग की जाती है और वे आतंकी वारदातों को अंजाम देते हैं। विरोधाभास ये भी है कि जम्मू-कश्मीर की मेन स्ट्रीम पार्टियां भी अपने वजूद के लिए अलगाववादियों की भाषा बोलती हैं। यह बात और कि जब सत्ता में होती हैं तो खामोश रहती हैं और दिल्ली आने पर भी उनकी जुबान खामोश रहती है। विसंगति ये भी है कि कुछ थिंक टैंक के नाम पर भी कश्मीर में अलगाववादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने पर परोक्ष भूमिका निभाते हैं। इस तरह से कश्मीर की बहुआयामी समस्या के निपटारे में सगती और नीति में निरंतरता की जरूरत बनी रहेगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here