लड़ाई तो पितृसत्ता से है हुजूर

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औरत के वजूद से बंधी रस्मों की रस्सियों के बल खोल उसे आजादी की ओर बढ़ाने को कमला ने उसका हाथ थामा, तो उसकी गरमाहट से न जाने कितने चेहरों पर मुस्कुराहटें तैरने लगीं। गुलदस्ते में सजे फूलों के तमाम रंगों की मानिंद कमला भसीन की शख्सियत के भी अलग-अलग रंग थे। एक समाजी कारकुन, कवि, शायर, कहानीकार कमला हिंदुस्तान में महिला आंदोलन की रूहेंरवां थीं।

कमला यह बेहतर जानती थीं कि उबलते पानी में परछाईं नहीं दिखती। इसलिए उन्होंने जेहनों में जड़ जमाए बैठी गैरबराबरी पर बोलने के लिए जो रास्ता चुना, वह बहुत सहज, सरल और ऐसा चुटीला था कि सुनने वाले के दिल पर असर छोड़ता और अड़ियल से अड़ियल इंसान भी उनकी बातों का कायल हो जाता। मसलन, दिल्ली में एक ट्रेनिंग प्रोग्राम में एक पुरुष कमला की बातों से असहमत होता रहा। शायद वह निजी अनुभव से परेशान था। लंच ब्रेक में कमला ने बड़े प्यार भरे अंदाज में उसके कंधे पर हाथ रख मुस्कुराते हुए कहा, ‘मियां, लड़ाई औरत बनाम मर्द की नहीं, लड़ाई तो पितृसत्ता से है हुजूर, जिसने खुद मर्दों को बड़ा नुकसान पहुंचाया। उसे रोने नहीं दिया, उसके इमोशंस को रोका, उस पर कमाने का बोझ लादा। नामर्दगी के दबाव में ही वह शिलाजीत ढूंढता फिरता है।’

‘घर का काम कौन करे’, इस मुद्दे पर कमला का सहज सा जवाब एक सरल से सवाल के रूप में सामने आया, ‘क्या घर का काम करने के लिए बच्चेदानी की जरूरत है?’ सुनने वाले आशय समझ अवाक रह गए। पहली दफा जब उन्होंने लखपति और करोड़पति का मतलब पूछा तो थोड़ा अटपटा सा लगा। समझ नहीं आया कि मतलब है क्या? फिर वह खुद ही बोलीं, ‘लखपति लाख रुपये का मालिक, करोड़पति करोड़ रुपये का मालिक, और फिर औरत का पति तो औरत का मालिक हुआ ना?’ इतनी गहरी बात इतनी आसानी से कही कि दिमाग में चिपक कर रह गई। यह था उनका अंदाजे बयां।

दूरदराज के गांवों से आई महिलाएं जब उनकी वर्कशॉप में आतीं, तो पहले उन महिलाओं की झिझक तोड़ने के लिए वह खुद ही उनके साथ गाने-नाचने लगतीं। अपने लिखे गीतों को वह महिलाओं की झिझक के अंदर पहुंचने का सबसे सशक्त जरिया बनातीं, ‘बहना चेत सको तो चेत, जमानो आयो चेतन रे।’ और, ‘तोड़-तोड़ के बंधनों को देखो बहनें आती हैं,’ या फिर, ‘आएंगी, जुल्म मिटाएंगी, वो तो नया जमाना लाएंगी।’ आज महिला आंदोलन के लिए तैयार हर लड़की कमला भसीन के ही लिखे गीत गाती है। सैकड़ों नारे गढने वाली कमला ने जब ‘आजादी-आजादी, हक है हमारा आजादी’ का नारा लगाया, तो उनके साथ एक वक्त में दुनिया भर की एक अरब महिलाओं ने इसे दोहराया था, जो कि एक रेकॉर्ड है।

उनकी उर्दू जुबान कुछ लखनवी और पंजाबी टच लिए बहुत साफ और रवां थी, उच्चारण की गलती कभी उनसे नहीं हुई। अपनों के बीच हमेशा वह हिंदुस्तानी में ही बोलना पसंद करती थीं। विदेश से आला तालीम लेने के बाद भी अंग्रेजी के अहंकार से वह मुक्त रहीं।

नारीवाद की प्रबल पक्षधर कमला ने महिला आरक्षण के सवाल पर कहा कि सिर्फ महिला के संसद में आने से चीजें बेहतर नहीं होंगी। नारीवादी महिलाएं स्त्री-पुरुष समानता की बात करेंगी, तभी हालात बदलेंगे। बच्चे को बराबरी का इंसान बनाने के लिए उन्होंने बहुत कुछ लिखा। वह कहती हैं, ‘तुम कपड़े पहनते हो? हां जी, हां जी। तुम कपड़े धोते हो? ना जी, ना जी। कपड़ों की हां, धोने की ना, ऐसे कैसे चले जहां?’ बलात्कार पर औरत की इज्जत लुटने का हाहाकार मचाने वालों को एक बार उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘सारी कौम की इज्जत योनि में लाकर क्यों रख देते हो? बलात्कार से तो इज्जत औरत की नहीं, मर्द की लुटती है।’

कमला का लिखा यह मशहूर शेर, ‘रौंद सकते हो तुम फूल सारे चमन के, पर बहारों का आना नहीं रोक सकते’, इंतेहापसंद ताकतों को बराबरी पर आधारित समाज बनाने के लिए आगाह करता है। चिट्टे दूधिया चांदी से चमकते बालों वाली हमारी पुरखिन को हम खिराजे अकीदत पेश करते हैं, उन्हें सलाम करते हैं। कमला भसीन की विरासत को आगे ले चलने के लिए इंसाफपसंद लोगों का जन सैलाब तैयार हो चुका है, जो उस जुनून को आगे ले जाने के लिए वादाबंद है।

नाइश हसन
(लेखिका साहित्यकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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