अंधभक्त व राजनीति के खिलाड़ी ना तो इन लाइनों के पक्षधर थे और ना ही अब होंगे लेकिन इस हकीकत से कौन इंकार कर सकता है कि सरकार चाहे किसी भी देश या सूबे में रही हो, हालात तब भी ऐसे ही थे और आज भी ऐसे ही हैं। राजपाट में आने के बाद दलों व नेताओं के अंतर धरातल पर प्रभावहीन से ही नजर आते हैं।।
महाकवि गोपालदास नीरज लिखकर चले गए-तू खड़ा होके कहां मांग रहा है रोटी, ये सियासत का नगर सिर्फ दगा देता है। अंधभक्त व राजनीति के खिलाड़ी ना तो तब इन लाइनों के पक्षधर थे और ना ही अब होंगे लेकिन हकीकत से कौन इंकार कर सलता है कि सरकार चाहे किसी की भी देश या सूबे में रही हो, हालात तब भी ऐसे ही थे और आज भी ऐसे ही हैं। राजपाट में आने के बाद दलों व नेताओं के अंतर धरातल पर प्रभावहीन से ही नजर आते हैं, इससे इंकार करना मुश्किल है। अभी हाल में मोदी सरकार ने अंतरिम बजट पेश किया था और गुरुवार को योगी सरकार ने यूपी के इतिहास का सबसे बड़ा बजट पेश किया है। शिक्षा व सेहत मोदी सरकार के भी एजेंडे पर था और योगी सरकार की घोषणाओं में भी ये पीड़ा झलकती नजर आ रही है लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि अगर सरकारें इन मामलों में चिंताएं दूर क्यों नहीं होती?
हर साल बजट आता है, ऐलान होते हैं तो फिर शिक्षा व सेहत मजबूत होती नजर क्यों नहीं आती? क्या बजट का मतलब ये मान लिया जाए कि केवल अस्पताल खुलने हैं? क्या मरीज के नसीब में सस्ता इलाज नहीं होना चाहिए? अगर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र व यूपी सरकार के एजेंडे में रही ही नहीं तो फिर सेहत की चिंता का ढोल पीटने का क्या मतलब? मोदी सरकार के बजट को ही ले लीजिए-राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का हिस्सा घटता ही जा रहा है, अगर मिशन ही नहीं रहा तो फिर कैसी सेहत की पीड़ा? अगर गर्भवती महिला व बच्चों की योजनाओं में ही कटौती साल दर साल हो रही है तो फिर सोचिए कि कहां खड़े हैं हम? ऐसी हर बीमारी जो गांवों को ज्यादा चपेट में लेती है वहां की सारी योजनाएं ना तो केन्द्र के बजट में इस बार प्राथमिकता पर रही और ना ही योगी के बजट में।
प्राइमरी हेल्थ सेंटर हम वेलनेस सेंटर तो बनाने चले हैं लेकिन वहां संक्रमण से फैलने वाले रोगों का इलाज अगर नहीं होगा तो फिर काहें के वेलसेन सेंटर? कड़वा सच यही है कि ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की पूती तरह चौपट किया जा रहा है। जो बजट होता है, जो आंकड़े बताए व सुनाए जाते हैं वो केवल कागजी हैं, किसी गांव की जमीन पर वो शायद ही दिख पाते हों? एम्स बनाने पर ध्यान है लेकिन अभी ये क्यों नहीं देखा जाता कि वहां भर्ती होने के लिए किसी भी गांव के लल्लू राम को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं? सरकारों का पहला काम होता है इलाज देना, दूसरा सस्ता देना, तीसरा हर 5-10 किमी के दायरे में देना लेकिन कहां है ये तीनों फैक्टर? योगी सरकार भी अस्पताल खोलेगी। लेकिन जो सरकारी खुले हैं क्या उनमें पर्याप्त डाक्टर हैं?
सस्ती दवाएं हैं, बेहतर इलाज है? अगर नहीं तो फिर क्यों खजाना लुटाया जा रहा है? मोदी सरकार की योजना है दस करोड़ गरीबों को सलाना पांच लाख तक का बीमा देने की लेकिन बजट रखा कितना? कैसे सबको मिलेगा? अगर दस करोड़ परिवारों में से एक चौथाई भी अस्पताल तक गए और बीमा मांगा तो हाथ कितना आएगा, केवल तीन हजार। ऐलान करते हैं पांच लाख का। आखिर सरकारों को ये बात कब समझ में आएगी कि सरकारी अस्पातलों को बेहतर करने की जरूरत है, बीमा देने की नहीं। अगर देश में 90 फीसद से ज्यादा बीमारियों का इलाज ओपीडी में ही हो जाता है और ये सब बीमा से बाहर का मसला होता है तो फिर बीमा के जरिए सरकार क्यों कारपोरेट का खजाना भरने के लिए एजेंट की तरह व्यवहार कर रही है? गरीब का सस्ता इलाज हो, ध्यान इस पर होना चाहिए और ये बीमा कराने पर जोर दे रहे हैं। हद है।
लेखक
डीपीएस पंवार