अमेरिकी लोकतंत्र का जवाब नहीं है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संसद में सालाना अभिभाषण दिया। वहां की यह रस्म कुछ वैसी ही है जैसे भारत में नए वर्ष के पहले संसदीय सत्र की साझा बैठक में राष्ट्रपति के अभिभाषण की है। हमने भी हाल में अपनी संसद के साझा सत्र में राष्ट्रपति का अभिभाषण सुना। उस नाते राष्ट्रपति कोविंद के मुंह से सरकार के काम और डोनाल्ड ट्रंप की जुबानी अमेरिकी प्रशासन की प्राथमिकताओं-काम की तुलना करने बैठेंगे तो कोई तुलना नहीं बनेगी। मगर लोकतंत्र का फर्क तो खुलता है। भारत और अमेरिका दोनों आज वैचारिक मतभिन्नता, राजनीतिक टकराव के दौर में है। वहां की संसद ने झूठ, पद के दुरूपयोग आदि पर डोनाल्ड ट्रंप को महाभियोग से दागी राष्ट्रपति करार दिया हुआ है बावजूद इसके संसदीय व्यवहार में उनके अभिभाषण को सभी ने शांति से सुना। डोनाल्ड ट्रंप का भाषण खत्म हुआ तो उनके पीछे बैठीं संसद की स्पीकर ने राष्ट्रपति के भाषण की प्रति फाड़ अपनी असहमति जताई। ट्रंप के रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों ने जहां भरपूर तालियां बजाईं वहीं डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद असहमति में मौन बैठे रहे। ध्यान रहे आज शायद विधायिका में ट्रंप के खिलाफ लोकसभा से पास हुए महाभियोग फैसले पर सीनेट में प्रारंभिक सुनवाई का फैसला भी संभव है। पर डोनाल्ड ट्रंप को चिंता नहीं है। उन्होंने आखिरी साल के अपने भाषण में बुलंदी से कहा कि वे जिस मकसद से आए थे वह पूरा नहीं हुआ है। आर्थिकी बेहतर नहीं हुई है। लोगों का इमिग्रेशन रूका नहीं है। मेक्सिको से सटे राज्यों में विदेशी भरे हुए हैं। मैं उन्हें निकालने, अमेरिकियों को रोजगार दिलाने, चीन से विदेश व्यापार जैसे कामों में खरा नहीं उतरा हूं। जो चाहता था नहीं हुआ है अभी मेरा काम बाकी है। जो किया उन कामों का जिक्र करते हुए डोनाल्ड ट्रंप ने हालात बेहतर नहीं होने, आर्थिकी के तेज न होने जैसी बातें कीं।
जाहिर है डोनाल्ड ट्रंप का अभिभाषण चुनाव अभियान की शुरुआत है। उन्होंने जिस अंदाज में भाषण दिया उससे उनके समर्थकों में, जनता में मैसेज जाएगा कि राष्ट्रपति अभी काम बाकी बता रहे हैं तो उन्हें आगे चार साल के लिए वापिस चुना जाए। संसद में रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों ने जिस अंदाज में तालियां बजाईं उससे लग रहा है कि उनकी पार्टी से उनकी उम्मीदवारी तय ही है। सो, अमेरिका यदि आज बिना आम राय के है, पक्ष-विपक्ष के बीच भारी राजनीतिक टकराव है तो बावजूद इसके अनुदारवादी बनाम उदारवादी विचारों में बराबरी का मुकाबला भी है। दिलचस्प बात है कि डोनाल्ड ट्रंप के वक्त में रिपब्लिकन पार्टी का अनुदारवाद बढ़ा है तो पार्टी के समर्थक वोटों में कंजरवेटिव राय पुख्ता हुई है। ठीक विपरीत डेमोक्रेटिक पार्टी में एक वक्त, उसके वोटों में लिबरल, कंजरवेटिव विचार वाले लगभग बराबर संख्या में हुआ करते है लेकिन अब मोटे तौर पर पार्टी लिबरल, उदारवादी जमात के दबदबे में है। इसलिए उम्मीदवार के नाते उदारवादी सीनेटर बर्नी सैंडर्स, इंडियाना के पेट बटिगिएग, माइकल ब्लूमबर्ग, टॉम स्टीयर आज के माहौल में बेगानी शादी में अब्दुल्ला हैं। बावजूद इसके डेमोक्रेटिक पार्टी, उसके सांसद, उसके राष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवारों ने पूरे दम खम से डोनाल्ड ट्रंप से लोहा लिया हुआ है। पार्टी के पहले प्राइमरी चुनाव में आयोवा में कुछ अव्यवस्था रही बावजूद इसके बर्नी सैंडर्स ने समर्थकों से कहा कि देश के आधुनिक इतिहास में यकीनन यह सबसे अहम चुनाव है तो पूर्व उप राष्ट्रपति जो बिडेन का हल्ला बोल है कि हम डोनाल्ड ट्रंप की नींद उड़ा सकते हैं। मैं आपसे वादा करता हूं कि अगर आप मेरे साथ खड़े होते हैं तो हम ट्रंप के नफरत और विभाजनकारी शासन का अंत कर देंगे।
निश्चित ही डोनाल्ड ट्रंप की शख्सियत के इर्द-गिर्द अमेरिका में इस वर्ष राजनीतिक टकराव में आर-पार होना है। इस समय वहां संसद में, राजनीति में वह सब हो रहा है, जिसकी कल्पना किसी दूसरे लोकंतत्र में नहीं हो सकती है। अमेरिका की प्रतिनिधि सभा यानि लोकसभा में बहुमत विरोधी पार्टी का है। संसद की स्पीकर और सदन में कानून बनाने वाले, लॉ मेकर राष्ट्रपति के फैसलों याकि कार्यपालिका पर धड़ल्ले से उन्हें कसने वाले फैसले लेते हैं तो उधर राष्ट्रपति महाभियोग के बावजूद अपने संघीय अभिभाषण में अपने आइडिया ऑफ अमेरिका से रत्ती भर संकोच या लुकाछिपी वाली बातें नहीं बोलते।
जैसे उन्होंने घुसपैठियों, गैरकानूनी प्रवासियों को रोकने के अपने मिशन में यह नहीं कहा कि वे देश के फाउंडरों का सपना पूरा कर रहे हैं। मतलब मोदी सरकार की तरह सीएए कानून पर गांधी के सपने पूरे करने की राष्ट्रपति अभिभाषण में जैसी लफ्फाजी करवाई गई वैसा कोई अंदाज नहीं। जो है वह एक निर्वाचित राष्ट्रपति के विचारों में बना एजेंडा है, जिसे वे पूरा कर रहे हैं तो विरोधी अपने दमखम पर नफरत और विभाजनकारी शासन का अंत कराने, लडऩे में न डर रहे हैं और न यह राजनीति करते हुए झिझके हुए हैं कि लातीनी अमेरिका से आए हुए लोगों, इमिग्रेशन आदि जैसे मुद्दों पर स्टैंड लिया तो बहुसंख्यक गोरे, ईसाई वोट कहीं बिदक न जाएं।
(लेखक हरिशंकर व्यास वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)