बढ़ रही बॉलीवुड की पैठ

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चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ भारत की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसे अतंराष्ट्रीय पहचान मिली थी। यह आजादी से पहले की बात है। सन 1946 में इसे कान फिल्म महोत्सव में ग्रैंड प्रिक्स अवार्ड मिला था और दर्शकों तथा आलोचकों ने इसे अपने समय से बहुत आगे की फिल्म माना था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ ऐसी ही प्रशंसा वी शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ को मिली। सत्यजीत रे ने तो विश्व सिनेमा में भारत को जो मान-सम्मान दिलाया है उसे सारी दुनिया जानती है। हर साल बनाई जाने वाली फिल्मों की संख्या की दृष्टि से भारतीय सिनेमा उद्योग विश्व में पहले नंबर पर है। इसके बाद भी यह माना जाता रहा है कि भारत के सिनेमा ने वैसी कोई पहचान नहीं बनाई जैसी हांगकांग के मार्शल आर्ट सिनेमा ने अपनी अनोखी शैली और जबर्दस्त बिजनेस के जरिए, ईरान के सिनेमा ने अपनी उत्कृष्टता के जरिए या कोरिया के सिनेमा ने विषय के चयन और प्रस्तुतिकरण की वजह से सारी दुनिया में बनाई है। लंबे समय तक भारतीय सिनेमा का ओवरसीज कारोबार इंडिया डायस्पोरा के बल पर चलता रहा। कनाडा, अमेरिका, यूके और दुबई में बसे भारतीयों के बीच भारतीय सुपरस्टार्स की लोकप्रियता ने वहां कारोबार का दरवाजे खोले। यश चोपड़ा की फिल्मों ने ओवरसीज में लोक प्रियता के नए कीर्तिमान बनाए। उन्होंने बड़ी कुशलता से ऐसी क हानियां बुननी शुरू कीं, जो विदेश में बसे भारतीयों को भी जोड़ सकें। इसका फायदा मिला और देखते-देखते भारतीय सिनेमा का कारोबार 2012 में बढक़र 1100 करोड़ हो गया।

इसकी एक बड़ी वजह इंडस्ट्री के तीन खान का चोटी पर पहुंचना भी था। आज की तारीख में चीन और ब्रिटेन में आमिर खान, अमेरिका और जर्मनी में शाहरुख खान तथा अरब देशों में सलमान खान उतने ही लोक प्रिय हैं, जितने अपने देश भारतॉ में। खास बात यह है कि इन देशों के अलावा कनाडा, जापान, मलयेशिया और तुर्की में भी भारतीय फिल्में तेजी से लोक प्रिय हुई हैं। गौर करें तो भारतीय अभिनेताओं की विदेशों में लोक प्रियता नई नहीं है। राज कपूर की समाजवाद के सपनों से ओत-प्रोत फिल्म ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ ने राज कपूर और नरगिस को तत्कालीन सोवितय संत में जबर्दस्त लोकप्रियता दिलाई थी। उन दिनों मास्को की सड़कों पर “आरावा” फिल्म के गीत बजते थे और कोई भी रूसी ‘आवारा हूं’ गुनगुनाता हुआ मिल जाता था। भारतीय फिल्मों की लोकप्रियता ने साझा निर्माण का रास्ता भी खोला। रूसी फिल्म ‘परदेसी’ पहली इंडो-रशियन फिल्म थी। इसमें रूसी अभिनेता ओलेज स्त्रिज्नेव और नरगिस ने अभिनय किया था। बाद में एफ सी मेहरा ने भी कुछ फिल्में रूस के सहयोग से बनाईं। ये फिल्में दोनों भाषाओं में रिलीज होती थीं। सन् 1978 में आई ‘शालीमार’ को अमेरिका में बसे कृष्णा शाह ने भारत और ब्रिटेन के अभिनेताओं को लेकर बनाया था, मगर ये प्रयास ज्यादा चले नहीं।

ग्लोबलाइजेशन के बाद कॉपीराइट के प्रति ज्यादा सख्ती बरती जाने लगी और लेखन, सिनेमा और संगीत में मौलिकता का महत्व बढ़ गया। नतीजा यह हुआ कि 80 और 90 के दशकों में जहां सीधे विदेशी फिल्मों से आइडिया या पूरी स्टोरी उठा ली जाती थी, वहीं अब ऑफिशियल रीमेक की भी मंजूरी ली जाने लगी है। हॉलिवुड के बड़े प्रॉडक्शन हाउसेज ने तेजी से बढ़ते भारतीय बाजार के लिए फिल्म निर्माण शुरू किया। इसी बीच अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस एंटरटेनमेंट और स्टीवन स्पीलबर्ग की ड्रीमवर्क्स मिलकर फिल्में बनाने लगे। इनमें से कई फिल्में सफल रहीं तो कुछ बुरी तरह असफल भी हुईं मगर इसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिल्म निर्माण में भारत का दखल बढ़ गया। ‘दंगल’ इस लिहाज से एक गेम चेंजर साबित हुई। भारत में दंगल ने करीब 500 करोड़ का कारोबार किया तो चीन में इसका कारोबार क रीब 1400 करोड़ रुपये का रहा। चीन के बाजार में भारतीय फिल्मों की लोक प्रियता ने इंडस्ट्री से जुड़े लोगो को चौंकाया तो जरूर मगर इस बार उन्होंने समझदारी दिखाई और तेजी से इस अवसर का लाभ उठाने में जुट गए।

नतीजा यह कि ‘बाहुबली : द कन्क्लूजन’ चीन के 4000 स्क्रीन पर रिलीज होती है। चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलते हैं तो ‘दंगल’ फिल्म का जिक्र करते हैं। और ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ तथा ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फिल्में वहां न सिर्फ भारत से ज्यादा कारोबार करती हैं, बल्कि यहां से ज्यादा लोकप्रिय भी होती हैं। चीन में मिली इस सफलता से भारतीय निर्माताओं ने उन देशों की तरफ देखना शुरू किया जहां वे अपनी फिल्मों का बाजार तलाश सकते थे। रूस, तुर्की, ताइवान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी, पुर्तगाल, पोलैंड और फ्रांस में भी भारतीय फिल्मों का बाजार विकसित हो रहा है। भारतीय सिनेमा की बेहतर होती तकनीकी गुणवत्ता, नए विषयों और कहानियों के चयन और बेहतर अभिनय ने इस बाजार को विस्तार देने में मदद की है। लैटिन अमेरिकी देशों में भी भारतीय फिल्मकारों ने दस्तक देनी शुरू क र दी है।

दिनेश श्रीनेता
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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