फिल्म समीक्षकों को ईमानदारी की जरूरत

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मैं आज एक क्रिटिक या फिल्म समीक्षक की भूमिका के बारे में बात करना चाहूंगी। इंटरनेट या सोशल मीडिया के दौर से पहले एक वक्त था, जब समीक्षक आम जनता से पहले फिल्म देख राय देते थे। अभी भी भूमिका वही है, पर माहौल बदल गया है। अब कई प्लेटफॉर्म हो गए हैं, जहां कोई भी फिल्म के बारे में अपनी राय रख सकता है।

असल में फिल्में कला का सबसे लोकतांत्रिक स्वरूप हैं। हर आर्ट फॉर्म के प्र‍ति हर किसी का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है। पर ऐसा नहीं है कि भरतनाट्यम देखा और रिव्यू लिख दिया। लेकिन फिल्म के बारे में कोई भी पसंद-नापसंद जाहिर कर सकता है। बीते जमाने में गिने-चुने फिल्म क्रिटिक थे, जो टीवी पर दिखते थे या अखबार में पढ़े जाते थे। अब ऐसा नहीं है। अब लोगों के अपने-अपने वॉट्सएप ग्रुप हैं, जहां तय होता है कि फलां फिल्म देखनी चाहिए या नहीं।

यानी आज वर्ड ऑफ माउथ बहुत चलता है। अब सोशल मीडिया में महज चंद घंटों में फिल्मों के प्रति या उसके खिलाफ बज़ या माहौल क्रिएट हो जाता है। अब के माहौल में एक तब्दीली और आई है। किसी फिल्म क्रिटिक ने अगर अपनी राय दी है तो उसके सपोर्ट या उसके खिलाफ जनता अपनी राय रख सकती है।

आलम यह है कि अगर मैं किसी फिल्म के प्रति राय रखती हूं तो यूट्यूब के नीचे तीन सौ कमेंट होते हैं, जो मुझे गलत साबित करने पर तुले रहते हैं। उसमें दिक्कत नहीं है, पर परेशानी गाली गलौज से होती है। अगर आपने ऐसा कुछ कह दिया, जो उनकी राय से नहीं मिलता तो वे बदतमीजी पर उतर आते हैं। पता नहीं ऐसा क्यों करते हैं। वह भी फिल्मों के मामले में। फिल्म में तो हम मनोरंजन की बातें कर रहे हैं। वहां आपसी विमर्श पर इतनी चरम प्रतिक्रिया समझ से परे है।

ऐसे माहौल का निर्माण यकीनन सोशल मीडिया के आने से हुआ है। वह इसलिए कि वहां के यूजर्स अज्ञात हैं। वे आपसे कभी मिलने वाले तो हैं नहीं। तो यूजर्स इसका फायदा उठाते हैं। ऐसे माहौल में एक समीक्षक का क्या काम और भूमिका है, वह समझने वाली बात है। मैं इस बात से भी सहमत हूं कि फिल्म बड़ी सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) चीज है।

बहुत मुमकिन है कि जो फिल्म आपको पसंद आई, वह मुझे पसंद न आए। या फिर ठीक इससे उल्टा हो सकता है। वह इसलिए कि हम दोनों बेहद अलग लोग हैं। हमारे जीवन के अनुभव बेहद अलग हैं। बहरहाल, ऐसे माहौल में भी समीक्षक की जो भूमिका है, वह कुछ ऐसी होनी चाहिए, ताकि जो आपका पाठक या श्रोता या दर्शक वर्ग है, उसका फिल्म देखने का अनुभव और बेहतर हो जाए। समीक्षक, शिक्षक नहीं हैं, मगर हो सकता है समीक्षा पढ़कर पाठक को सीखने को कुछ मिले। उसे नया दृष्टिकोण मिले और समीक्षा पढ़कर उसे लगे कि अरे ये तो मैंने सोचा ही नहीं।

सोशल मीडिया पर फिल्म समीक्षकों के प्रति विषाक्त माहौल का कारण शायद कहीं न कहीं सितारों का फैन ग्रुप भी हो सकता है। जाहिर तौर पर अपने चहेते स्टार की आलोचना सुनने पर वे समीक्षक पर हमलावर हो जाते होंगे। दरअसल फैन ग्रुप के सोशल मीडिया अकाउंट के काफी फॉलोअर्स होते हैं।

नंबर पावर की वजह से वे क्रिटिक या एक्सपर्ट पर हावी होने की कोशिश करते हैं। हालांकि उन्हें समझना होगा कि क्रिटिक स्टार की आलोचना नहीं कर रहे या फिल्म की बुराई नहीं कर रहे। वे एक राय रख रहे हैं। खैर, जो मौजूदा जहरीला माहौल सोशल मीडिया पर है, उसके मद्देनजर समीक्षकों को अब और ज्यादा ईमानदारी से बात रखनी होगी। तभी सोशल मीडिया के ट्रोलर्स का सामना कर सकेंगे।

अनुपमा चोपड़ा
(लेखिका फिल्मी पत्रिका की संपादिका हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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