पत्रकारिता में नाक के नीचे आंधी आई हुई है, फर्जी और दागी मूंछ काटने पर उतारू हैं। पत्रकारिता की साख दांव पर लग चुकी है। समाज का भरोसा उठता जा रहा है। हैरत की बात यही है कि मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर सब बगुले भगत की तरह चुप्पी साधे बैठे हैं। सुप्रीम कोर्ट के हडक़ाने के बाद अब सरकार सोशल मीडिया के लिए कायदे-कानून बनाने में जुटी है लेकिन ना तो मीडिया संस्थानों ने कायदे-कानून बनाए और ना ही भारतीय प्रेस परिषद ने कागजी काम के अलावा पत्रकारिता को साफ सुधरा बनाए रखने के लिए कोई पहल की। नतीजे समाज के लिए बेहद घातक हैं। ऐसे में ये सवाल तो उठते ही हैं कि आखिर फर्जी पत्रकार काम किस तरह करते हैं? प्रभात आपके सामने कुछ तस्वीर पेश कर रहा है लेकिन जरूरी नहीं कि इसके अलावा इन नटवरलालों की खोपड़ी कुछ और भी तरह से गुल ना खिलाती हो।
पुलिस से ही उगाही- पुलिस के लिए उगाही : यह उगाही विशेषक र दो तरह से होती हैं। एक तो जब कि सी लाल बत्ती पर या चैराहे नाके पर पुलिस वाला ज्यादा सवारी बैठाने पर या अन्य कारणों से वाहन चालकों से पैसा ले रहा हो तो उसका वीडियो बनाक र ऐसे फ र्जी टाइप के पत्रकार भाई बंधु उसी से उसकी दिनभर की उगाही का 25 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक लेने का दबाव बनाते हैं। अब पुलिसकर्मी या वहां पर खड़े साथी लाख दलीलें दें कि यह पैसा उसका नहीं है। अभी तो इस पैसे का बंटवारा होना बाकी है, तो भी शाम के खर्चे-पानी का पैसा तो निकल ही जाता है। दूसरा तरीका यह है कि पुलिस पोस्ट के पास यह चलता फिरता प्राणी खुद ही पुलिस वालों के लिए पैसा इकट्ठा करना शुरू कर देता है। यह तरीका मेरठ की कुछ जगहों पर बहुत प्रचलित है। क्योंकि इसमें पुलिस को कोई खतरा नहीं है। वह अपनी डयूटी बखूबी दे रहे हैं और कमाई भी हो रही है। यह तरीका दिल्ली के दरवाजे गाजीपुर में बहुत प्रचलित था और वहां इससे लाखों का माल एक महीने में इधर-उधर होता था। थानों की दलाली तक फर्जी पत्रकार करने लगे हैं। एमडीए, नगर निगम भी इनके मनपसंद दफ्तर हैं।
खुश नहीं रखोगे तो श्राप दे दूंगा : एक जमाना था। जब मकान या दुकान बनाने और उसके बाद शुरू क रने के पहले या उसके कुछ समय बाद बधाई देने किन्नर आते थे और बिना पैसा लिये या अपना इनाम लिये वह जाते नहीं थे। लोग इसे शुभ भी मानते हैं। परंतु अब इनके साथ-साथ दूसरे दर्जे के पत्रकार भी आते हैं और नगर पालिका, पुलिस और विभिन्न तरह की संस्थाओं के नाम लेकर दुकानदारों या मकान मालिक के मकान में कमिया गिनाकर शिकायत न करने की फीस वसूलते हैं। या फिर उनको यह ऑफर देते हैं कि सैटिंग करा देता हूं हर महीने लेते- देते रहना लेकिन मेरी फीस आज इतनी है दे दो। आगे मैं आपका भगवान हूं। खुश नहीं रखोगे तो श्राप दे दूंगा।
होटल मालिकों व पीत पत्रकारों में मधुर संबंध : अमूमन सभी छोटे-बड़े शहरों में कु छ होटल सिर्फ इसलिए चलते हैं क्योंकि उनके मधुर संबंध उन्हें सुरा, सुंदरी और जीने के 36 मजे एक छत के नीचे मिलते हैं। ऐसे पत्रकार बंधु पहले अपने ही लोगों को होटल में कॉलगर्ल के साथ भेजते हैं और फिर पुलिस की रेड की डर दिखाकर होटल मालिक से मोटी रकम के साथ-साथ खाना-पीना और रात बिताने का इंतजाम करते हैं। दूसरा पहलू भी है कि पूरा रैकेट होटल में चलवाने के इंतजाम के साथ- साथ पुलिस की सैटिंग की एक फीस तय की जाती है और फिर खुले में यह खेल चलता रहता है जिसमें पत्रकार, पुलिस और होटल का मालिक सब बहती गंगा में हाथ साफ करते हैं।
नौकरी दिलाने के वास्ते भी झांसे का रास्ते : प्रभात ने इसके पहले अपने पाठकों के लिए एक मुहिम चलाई थी। नकली नौकरी दिलाने वालों से सावधान करने के लिए। क्योंकि यह एक बहुत बड़ा अपराध है कि एक गरीब बेरोजगार से उसके पैसे ऐंठ लेना। लेकिन इस पूरे मामले की स्टडी के दौरान हमें एक बहुत बड़ी सच्चाई से दो-चार होना पड़ा कि इन एडमिशन, नौकरी तथा इससे संबंधित अन्य कार्यों में एक ऐसा मकडज़ाल बनाया हुआ है कि बेचारा बेरोजगार सब दे जाता है और कुछ नहीं पाता।
एक केस आपको बतायें – मेरठ के ही एक मोहल्ले में एक बेरोजगार नौकरी का विज्ञापन देखकर उस जगह पर पहुंचा। क्योंकि नौकरी बहुत बड़ी थी, सरकारी थी इसलिए काफी तादाद में लोग वहां पहुंचे। फार्म भरवाये गये तो पैसे, उसके बाद टेस्ट की तैयारी कैसे करें उसके पैसे फिर पेपर लीक करने के पैसे, फिर ऑनलाइन टेस्ट के पैसे और अगले दिन पूरा ऑफिस खाली। पता नहीं चला कि कल तक पूरे ऑफिस में जो दस-बाहर लोग बैठे थे वह गधे के सींग जैसे कहां गायब हो गए? अब अगला सीन आता है। इसी गरमा-गरमी में दो-तीन पत्रकार आये। बड़ी सहानुभूति दिखाई। लिखा-पढ़ी हुई। वीडियो फिल्म बनाई और जो बचे- खुचे जेब में पैसे थे वह निकलवाये लेकिन अब इन पत्रकारों और उससे संबंधित वेबसाइटों का भी पता नहीं। अगला नंबर आया पुलिस का तो वह जांच कर रही है। कब जांच पूरी होगी, ऊंट किस करवट बैठेगा इसका पता नहीं? यानी गोरखधंधा बेजोड़ है। पर इस गंदे धंधे ने मीडिया के सही बंदे भी परेशान हैं और पत्रकारिता की आत्मा भी।