प्रेम में अथाह शक्ति होती है। अथाह, मगर सकारात्मक। प्रेम का प्रतीक ताजमहल तो पूरी दुनिया ने देखा है। एक बादशाह ने अपनी प्रिय पत्नी की याद में बनवा दिया। एक बादशाह के लिये शायद ये उतना मुश्किल भी नहीं था। खास कर तब, जब उसके पास संसाधन और शक्ति दोनों थी। मगर प्रेम किसी एक ताजमहल तक सिमट कर नहीं रहता। ये दुनिया को बताया दशरथ मांझी।
बिहार के गया जिले में एक गांव है। नाम है गहलौर। वहीं एक गरीब भूमिहीन मजदूर परिवार में जन्मा आम सा इंसान था दशरथ मांझी। वो मूसहर बिरादरी से था। उसका परिवार खेतों में मजदूरी करता। भूख लगी तो खेतों से ही चूहे मारे और भोजन का जुगाड़ कर लिया। ये शौक नहीं मजबूरी होती थी इनकी। ना खेती-बाड़ी, ना कोई रोजगार। दशरथ को प्रेम हुआ। उसने शादी भी की। गांव में अधिक संसाधन नहीं थे। पीने के लिये पानी भी कम ही था। गर्मियों के दिनों में हाल बद से बदतर हो जाता था।
गांव की दूसरी औरतों की तरह ही दशरथ मांझी की पत्नी भी रोज पहाड़ पार कर दूसरे गांव से पानी लाती थी। अक्सर ही औरतें वहां फिसलकर गिर पड़तीं। उनका पानी बिखर जाता। उन्हें चोट भी लगती। दशरथ की पत्नी के साथ कई बार ऐसा हुआ। ये देखकर उसे बहुत दुःख होता था। उसके मन में बार-बार यही ख्याल आता कि काश ये पहाड़ यहां न होता। गांव के लोगों का जीवन कुछ तो आराम से जरूर गुजरता।
उस रोज एक हादसा हुआ। यूं तो दशरथ की पत्नी कई बार फिसली थी पहाड़ पर। गिरी भी थी। थोड़ी बहुत चोट लगती और फिर सब सामान्य हो जाता था। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। अबकी वो गिरी तो फिर नहीं उठी। पत्नी की मौत ने दशरथ को पीड़ा के समंदर में धकेल दिया। प्रेम को पीड़ा दी थी उस पहाड़ ने जिस पर फिसल कर उसकी पत्नी की मौत हुयी थी। वो पहाड़ उसके लिये शत्रुवत हो गया। तो दशरथ ने भी ठान लिया कि वो उस पहाड़ को हटा कर ही दम लेगा।
गरीबी ऐसी थी कि दो जून की रोटी भी मुश्किल में मिल पाती थी तो औजार कहां से लाता। उसने अपनी बकरी बेच डाली और छेनी हथौड़ा खरीद लाया। अगले दिन सुबह-सुबह उसने पहाड़ काटकर रास्ता बनाना शुरू कर दिया। लोग दशरथ को अविश्वास से देखते। देखकर हंसते, उसका मजाक उड़ाते थे। मगर वो उनकी हरकतों से बेखबर रहता। वक्त गुजरता रहा, मगर इन सबसे बेखबर अपनी धुन का पक्का दशरथ मांझी अपने काम में लगा रहा। पहाड़ के सीने की कठोर चट्टानें उसकी छेनी के प्रहारों से कट-कटकर गिरती रहीं और रास्ता बनता रहा।
पत्नी की मौत से उमड़े दुःख से उसका संकल्प और अधिक दृढ़ हो गया था। बाईस साल की अथक मेहनत के बाद एक दिन पहाड़ के सीने को चीरता हुआ एक रास्ता दूसरे गांव तक निकल आया। इससे पास के कस्बे की दूरी जो पहले अस्सी किलोमीटर से भी अधिक थी, अब मात्र तेरह किलोमीटर हो गई थी। अकेले अपने दम पर यह करिश्मा कर दिखाया था दशरथ मांझी ने। वो कोई बादशाह नहीं था। उसके पास दौलत शोहरत और ताकत भी नहीं थी। कुछ था तो बस प्रेम।