पिछले चुनावों से अगल है ये चुनाव

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ये प्रोलभन चुनावी घोषणा-पत्रों के माध्यम से दिए गए किन्तु इस बार प्रमुख राजनीतिक दलों ने खासकर के सत्तारुढ़ दल ने तो अपना घोषणा-पत्र उसके सार्वजनिक विमोचन के बाद बस्ते में बांधकर रख दिया और सत्तारूढ़ दल जहां राष्ट्रवाद और सेना के शौर्य (स्ट्रॉईक्स) को मुद्दा बनाकर मत बटौरने का उपक्रम करने लहा तो प्रतिपक्षी दल सत्तारूढ़ दल की आलोचना अर्जित करने का प्रयास करने लगा।

आज देश कै हर मतदाता यह महसूस करने को मजबूर है कि 2019 के लोकसभा चुनाव पिछले चुनावों से काफी अलग है, आज वोट मांगने के लिए कोई भी दल या उसके नेता मतदाताओं के हित की बात क्यों नहीं कर रहा? साथ ही कोई भी दल व उसके नेता अपने दल के घोषणा-पत्र में समाहित मुद्दों पर बहस या चर्चा क्यों नही करता? साथ ही सत्तारूढ़ दल सैना के शौर्य को अपी राजनीतिक ढाल क्यों बना रहा? फिर सबसे अहम् और बड़ी बात इस चुनाव में यह देखी जा रही है कि राजनीतिक दल वोट हासिल करने के लिए प्रतिपक्षी दलों व उसके नेताओं पर निजी प्रहार कर रहे है, यहां तक कि दिवंगत शहीदों को भी वे नहीं बगश रहे है। इन्हीं कुछ दृष्टियों से 2019 के चुनाव पिछले चुनावों से अलग नजर आ रहे है, क्योंकि इस बार ‘मतस्पर्द्धा’ के दौर में वे सब हीन हथकंडे अपनाए जा रहे है, जो इससे पहले कभी भी नहीं अपनाए गए।

भारत की आजादी के के बाद से अब तक के सढ़सठ वर्षों में जितने भी चुनाव हुए वे सब राजनीतिक दलों के अपने सिद्धांतों के आधार पर हुए, यदि हम शुरू के तीन चुनाव को छोड़ दे तो उनके बाद हुए एक दर्जन चुनाव देश के मतदाताओं के कल्याण के मुद्दों पर चुनाव लड़े गए हर दल अपने तरीके से प्रलोभन की थाली परोसता था और उसी आधार पर मतदान होता और सरकारें बनती रही। ये प्रलोभन चुनावी घोषणा-पत्रों के माध्यम से दिए गए किंतु इस बार प्रमुख राजनीतिक दलों ने खासकर के सत्तारूढ़ दल ने तो अपना घोषणा-पत्र उसके सार्वजनिक विमोचन के बाद बस्ते में बांधकर रख दिया और सत्तारूढ़ दल जहां राष्ट्रवाद और सेना के शौर्य (स्ट्रॉईक्स) को मुद्दा बनाकर मत बटौरने का उपक्रम करने लगा तो प्रतिपक्षी दल सत्तारूढ़ दल की आलोचना अर्जित करने का प्रयास करने लगा।

यद्यपि हर दल का नेता यह जानता है कि अब देश का मतदाता पांच दशक पूर्व वाला अनजान मतदाता नहीं रहा, किंतु फिर भी इन्होंने आम मतदाताओं को बुद्धु बनाने में कोई कसर नहीं छोड़े। फिर इस चुनाव में यह भी पहली बार ही देखने में आ रहा है कि सत्तारूढ़ दल अपनी सरकार की पांच की उपलब्धियों का बखान नहीं बनाया। शायद इसलिए क्योंकि मौजूदा सरकार की पांच साल की सत्ता की उपलब्धियां कम और बदनामी के कदम ज्यादा है, यदि सरकार अपनी चंद, उपलब्धियां गिनाती है तो फिर जनता को सरकार के नोटबंदी, जीएसटी व जनता से जुड़े फैसलों के कारण पहुंची पीड़ा भी याद आएगी और इससे वोट हासिल क रने के बजाए सत्तारूढ़ दल के हाथों से खिसक जाने की संभावना बढ़ जाएगी बस इन्हीं कारणों से उपलब्धियां सरकारी पीड़ादायक फैसलों में गुम हो गई और इसीलिए क भी सैना का शौर्य याद आता है तो कभी राष्ट्रवाद या प्रतिपक्षी नेताओं की खामिया।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यह चुनाव ही पिछले चुनावों से अलग नहीं है, बल्कि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री जी भी पिछले प्रधानमंत्री से बहुत कुछ अगल है, प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू से लकेर डॉ. मनमोहन सिंह जी ने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को बनाए रखा, इसमें भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल है, किन्तु मौजूदा प्रधानमंत्री पद की गरिमा को अपनी निम्नस्तरीय वाणी, संवाद और अहम के द्वारा धूल धुसरित करके रख दिया। आज तक किसी भी पूर्व प्रधानमंत्री ने किसी भी शदीद को निशाना नहीं बनाया, किन्तु मौजूदा प्रधानमंत्री ने संचार क्रान्ति के संवाहक पूर्व प्रधानमंत्री शहीद राजीव गांधी को भ्रष्टाचारी कहकर पद की गरिमा को काफी चोंट पहुंचाई ऐसा करके प्रधानमंत्री जी ने अपने आपको शदीद करकरे की आलोचना करने वाली नादान प्रज्ञा सिंह ठाकुर की पंक्ति में खड़ा कर दिया। आज तो राजनीति में सिद्धांत, मर्यादा जैसी कोई चीज नहीं रही, रही है तो सिर्फ अधिक से अधिक मत प्राप्त करने की तकनीक, फिर वह चाहे वैध हो या अवैध…

ओमप्रकाश मेहता
लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी वीचार हैं

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