दलित के शोषण का हथियार था अनुच्छेद 370

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यह सत्य है कि कश्मीर का अभिकुलीन वर्ग निर्बल वर्ग के शोषण के लिए सात दशकों से अनुच्छेद 370 का प्रयोग करता आया है। जब इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया तो ऐसे तत्वों का परेशान होना स्वाभाविक भी है। शताब्दियों से समाज के जिस विशिष्ट वर्ग ने व्यवस्थाओं का संचालन किया हो, वह कैसे अपने अधिकारों को छीनता देख सकता है। निश्चित तौर वह अपनी श्रेष्ठताबोध को सुरक्षित रखने के लिए वह सभी प्रपंच करेगा जो उसकी सीमा में हो, और उसके लिए सम्भव हों। यह कश्मीर का यथार्थ है कि वहां का एक वर्ग विशेष यह समझता आया है कि वह राज्य का प्रभुय है। यदि हम कश्मीरी समाज का समुदायगत वर्गीकरण करें तो ज्ञात होता है कि देश के अन्य भागों की भांति वहां की सामाजिक संरचना में भी बिखराव है। वहां भी निर्बल वर्ग का शोषण उसी प्रकार से किया जाता है, जैसे कि अन्य स्थानों पर। सबसे दुखद बात यह है कि कश्मीर के दलित समाज के भीतर कि सी सशक्त नेतृत्व का उदय भी नहीं हो सका और न ही किसी प्रकार का कोई दलित आंदोलन हुआ। असल में, उनको स्वतंत्र परिवेश में सांस लेने का मौका ही नहीं दिया गया।

यही कारण है कि वहां आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं की गई और न ही उनके समग्र विकास के लिए किसी प्रकार की कोई योजना अस्तित्व में आई। कश्मीर की राजनीतिक, धार्मिक , आर्थिक तथा शैक्षिक संस्थाओं पर मल्ला, पीर और सैयद जैसे उच्च जातियों का नियंत्रण है। व्यवस्था को अपने हाथों में रखने के लिए इस त्रिगुट में ऐसी सहमति है कि ये अपने से बाहर उसको जाने नहीं देते। कश्मीर में खेती करने वाली जाति को ग्रिस्त कहा जाता है, लेकिन इनकी भी वहां के सामाजिक जीवन में परिणामपरक भूमिका नहीं है। नानगार जैसी जाति जिसमें भूमिहीन किसान होते हैं, वे तो अपने लिए सम्मान की आशा कर ही नहीं सकते। वातल और हांज जाति के लोगों की स्थिति कश्मीर में बहुत खराब है। इसके साथ पशुसम व्यवहार किया जाता है। इनकी बस्ती उच्च वर्ग की बस्तियों से दूर होती हैं। शियाओं को कश्मीर में छोटी जाति का तो नहीं माना जाताए लेकिन उसके साथ निरंतर भेदभाव तथा हिंसा होती रहती है। बात सन 1988 की है। 17 अगस्त को पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया-उल-हक की मृत्यु का समाचार घाटी में आया तो पाकिस्तान समर्थकों में हिंसा करनी आरम्भ कर दी।

यह हिंसा इतनी अधिक भयावह थी कि श्रीनगर, बारामूला, पुलवामा तथा मदरयार आदि नगरों में चार दिनों तक हिंसा होती रही। इस हिंसा का शिकार शिया समुदाय, हिंदू तथा वंचित समाज हुआ। 26 अगस्त को मुहर्रम का शोक प्रकट करते हुए शियाओं पर घातक हमले किए गए। इस घटना को लगभग 31 साल गुजर गए लेकिन शिया समुदाय को मुहर्रम के अवसर पर अपनी धार्मिक आस्था के अनुरूप शोक जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी गई। यह तो एक घटना मात्र है। लेकिन कश्मीर घाटी का अभिकुलीन वर्ग शिया समुदाय के साथ अन्यायकारी व्यवहार करता रहा। यही कारण है कि घाटी से शियाओं का पलायन होता रहा। अविभाजित जम्मू कश्मीर राज्य में शियाओं की जनसंख्या दस प्रतिशत से कुछ अधिक है। वे सुरक्षा की दृष्टि से करगिल तथा लद्दाख के क्षेत्र में बसने लगे। इसका परिणाम यह निकला कि करगिल तथा उसके निक टवर्ती क्षेत्रों में शिया समुदाय बहुमत में हो गया है। मुस्लिम गुर्जर समुदाय को भारतीय सेना की आंख तथा कान कहा जाता है। प्रत्येक अभियान में ये भारतीय सेना की सहायता करते हैं।

सन 2011 की जनगणना के अनुसार गुर्जर समुदाय की जनसंख्या 11 प्रतिशत है। लेकिन कुछ समाजशास्त्री इसे सही नहीं मानते। उनका कहना है कि पर्वतों पर रहने वाले तथा यायावर जीवन जीने वाले गुर्जरों के सभी कबीलों को इस जनगणना में शामिल नहीं किया गया। इस दृष्टि से गुर्जरों की जनसंख्या 13 प्रतिशत मानी जाती है। यह वर्ग कभी पाकिस्तान का समर्थन नहीं रहा और न ही यह चाहता था कि राज्य में अनुच्छेद 370 लागू रहे। जब भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 के उन्मुलन की घोषणा की तो सर्वाधिक स्वागत गुर्जर समुदाय द्वारा किया गया। इस समुदाय की यह विशेषता है कि इसमें दो लाख से अधिक बकरवाल हैं। बकरवाल उन गुर्जरों को कहा जाता है जो रसूखदार है और अन्य की तुलना में अधिक प्रभावी तथा आर्थिक दृष्टि से अधिक सबल हैं। यह समुदाय शियाओं की भांति पूरी तरह से राष्टड्ढ्रनिष्ठ है। अनुच्छेद 370 के कारण जिस प्रकार से वंचित वर्ग के साथ अन्याय हुआ, वैसा की गुर्जरों के साथ किया गया। वर्गगत व्यवहार तथा जीवन शैली के अनुसार गुर्जर जनजाति वर्ग में आते हैं, लेकिन उन्हें किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं हुआ।

भारत विभाजन के समय जो लोग पश्चिमी पंजाब से आकर कश्मीर में बस गए थे, उनकी जनसंख्या पांच से छह लाख के मध्य है। ये जम्मू संभाग के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहते हैं। सात दशक बीत जाने के पश्चात भी इन अभागे हिंदुओं को राज्य का नागरिक नहीं माना जाता। इस कारण ये न तो सरकारी नौकरी कर सकते हैं, और न ही कोई भी सरकारी सुविधा इनको मिलती है। इनके बच्चों के प्रवेश सरकारी विद्यालय नहीं होते। ये हिंदू दास जीवन जी रहे हैं। मोदी सरकार ने अपनी पहली पारी में इन शरणार्थियों के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाएं आरम्भ की थी, जैसे 5764 परिवारों को 5.50 लाख का अनुदान प्रत्येक के अनुसार दिया गया तथा उनके लिए केंद्रीय विद्यालय खोले गए। ये वर्ग नारकीय जीवन जीने के लिए विवश था, अनुच्छेद 370 समाप्त होने के पश्चात इनके जीवन में खुशियां आ सकती हैं। उल्लेखनीय है कि ये हिंदू दलित समाज से सम्बंधित है। दलित राजनीति करने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने इसकी व्यथा कथा को सुनने का प्रयास नहीं किया। ये राज्य की जनसंख्या का चार प्रतिशत हैं। कश्मीर में हिंदू पंडितों के साथ परिणामपरक अत्याचारों का दौर 14 सितम्बर 1989 से आरम्भ हुआ। समाचार पत्रों में विज्ञापन तथा मस्जिदों के ध्वनि विस्तारक यंत्रों से प्रचाारित होने वाली धमकियों से भयभीत हिंदुओं का पलायन आरम्भ हो गया। सैकड़ों की हत्याएं कर दी गईं। सात लाख कश्मीरी पंडित राज्य से बाहर कर दिए गए। उनकी सम्पत्ति पर अलगाववादियों ने कब्जा कर लिया। बात बात पर फतवा जारी करने वाले भी मौन रहे। किसी ने यह नहीं कहा कि यह शैतानियत है।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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