हां, बिहार विधानसभा चुनाव इस नाते अनूठा था क्योंकि जात-पांत हाशिए में जाता लगता था। तेजस्वी यादव ने झूठ का ऐसा दहला मारा, उन्होने नौजवान बेरोजगारों की दुखती नस पकड़ चुनाव जीतते ही दस लाख नौकरियों का वह दहला मारा कि एक तो जातिय राजनीति किनारे हुई और दूसरे नरेंद्र मोदी व नीतिश कुमार के स्थापित, पुराने इस महाझूठ के परखचे उड़े कि उनसे विकास है, सुशासन है। तेजस्वी ने दहला चला और नौजवानों की भीड़। इससे नीतिश कुमार के पंद्रह साला राज की थू-थू। नीतिश नाकाबिल और तेजस्वी की वाह! मगर दहले पर झूमने वाले नौजवान, बिहार के लोग, जानकार समीक्षक-पत्रकार और पूरा विपक्ष यह भूल बैठा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह चुनाव को वोटों की फैक्ट्री की उस असेंबली लाईन से लड़ते है जिसमें झूठ के पत्तों से ही वोट नहीं पकते है बल्कि पूरी असेंबली लाईन पूर्वनिर्धारित स्क्रीप्ट, रोडमैप और भावनात्मक रसायनों से तरबतर होती है जिसमें राम है, जानकी है तो पाकिस्तान है जयश्री राम और भारत माता की जय के साथ वोट डलवाने, मतगणना के प्रबंधन से ले कर हारने के बाद भी पार्टी के मुख्यमंत्री की तयशुदा शपथ है।
यह तो न जाने कैसे डोनाल्ड ट्रंप ने ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा लगवा कर भी बाद में नरेंद्र मोदी से कंस्लटेंसी नहीं ली अन्यथा ट्रंप को अब तक अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टीस घर बुलाकर दुबारा शपथ दिलवा चुका होता। बहरहाल तेजस्वी और पूरा विपक्ष चुनाव में मासूमियत का मारा था। निश्चित ही तेजस्वी का दस लाख सरकारी नौकरियों का झांसा नौजवानों का दिल जीतने वाला था लेकिन उससे यह जो हल्ला हुआ कि बिहार में जन आक्रोश बोल रहा है, बिहार में परिवर्तन की हवा है और नीतिश कुमार से लोग थक, ऊब गए है वह अति आत्मविश्वास की सोच थी। तेजस्वी ने दहला चला लेकिन नरेंद्र मोदी के सन् 2019 के चुनाव की हकीकत के 52 प्रतिशत वोटो की अनदेखी की। महागठबंधन और एनडीए में यदि 16-17 प्रतिशत वोटों का फर्क था तो तेजस्वी-राहुल गांधी-लेफ्ट तीनों को वोट आधार वाले एक-एक जातिय नेता को पकड़ना था। उन्हे न उपेंद्र कुशवाह को जाने देना था और न पप्पू यादव या वीआईपी पार्टी को जाने देना था।
कांग्रेस और राहुल गांधी को समझदारी दिखानी थी कि सत्तर सीटों की जिद्द कर इतनी सीटों पर लड़ने के बजाय वे अपनी इन 70 सीटों में से उपेंद्र कुशवाह, पप्पू यादव, वीआईपी पार्टियों को तीस-चालीस सीटे बांट देती। जातिय नेताओं का इतना बड़ा इंद्रधनुष बनाती कि पूरा मुकाबला एकजुट विपक्ष बनाम एनडीए में होता। हां, बिहार के मौजूदा चुनाव से फिर साबित है कि जब तक पूरा विपक्ष एकजुट नहीं होगा तब तक लोगों की बदहाली, दुर्दशा और बदलाव की चाह वोट में कनवर्ट नहीं होगी। आगे उत्तरप्रदेश, गुजरात, बंगाल, असम आदि कई जगह विधानसभाओं के चुनाव है। यदि नरेंद्र मोदी की वोट फैक्ट्री, साम-दाम-दंड-भेद के तमाम नुस्खों और बेइंतहा पैसे, साधनों के आगे विपक्ष में एक-दूसरे को एडजस्ट करते हुए ममता, लेफ्ट, कांग्रेस, क्षेत्रिय पार्टियों ने एलांयस बना कर चुनाव नहीं लड़ा तो वहीं होगा जो बिहार में हुआ है। मामूली बात नहीं है जो बिहार में एनडीए के सन् 2019 के मुकाबले 16 प्रतिशत वोट घटते लगते है। तथ्य है कि लोकसभा चुनाव जीतने के बाद हर विधानसभा चुनाव में भाजपा के आठ से 16 प्रतिशत वोट कम हुए है।
एक आंकलन के अनुसार हरियाणा, महाराष्ट्र से बिहार के विधानसभा चुनावों में भाजपा के कोई बारह प्रतिशत वोट घट चुके है। मतलब जिन्होने 2019 में भाजपा को वोट दिया था उनमें से बारह प्रतिशत लोग नाराज हो विपक्ष को वोट दे चुके है। बिहार में विपक्ष, महागठबंधन का 2019 में सूपडा साफ था। भाजपा-एनडीए के वोट कोई 52 प्रतिशत थे। मगर एक साल में लोग इतने परेशान, बेहाल, नाराज हुए कि लोगों ने ठान ली की नीतिश सरकार को हटाना है। तभी सीटों और वोट प्रतिशत में बहुत बारीक अंतर से जीत-हार का फैसला है। लेकिन लड़ाई मैराथन दौड वाली हो या सौ मीटर दौड़ वाली, कुछ इंच, कुछ मीटर, कुछ सैकेंड-मिनट्स से ही तो फैसला हुआ करता है। उसमें निर्णायक बात कीलिंग इस्टींक्ट, जज्बे, एकजुट दमखम की है। बिहार से क्या साबित हुआ? पंद्रह साल से लगातार चूक रही भांप और बेरोजगारी, आर्थिक बदहाली, महामारी ने प्रदेश की सर्वाधिक संख्या वाली नौजवान आबादी में परिवर्तन का जज्बा बनाया, उसे नारा मिला, नहले पर दहले वाला झूठ मिला, जनसभाओं में भीड उमड़ी, घर-घर बात पहुंची बावजूद इस सबके कांग्रेस के उम्मीदवार जज्बे को वोट में कनवर्ट नहीं कर पाएं।
राजद-कांग्रेस-लेफ्ट ने हर सीट पर समान रूप से ध्यान नहीं दिया। अपनी जगह तर्क है कि पैसा नहीं, साधन नहीं है तो कैसे सत्तापक्ष के दमखम के मुकाबले चुनाव लड़ा जाए। मगर बिहार में लेफ्ट पार्टियों ने साबित किया है कि यदि इरादा पक्का हो तो लोगों की चाहना से अपने आप बात बन सकती है। यह फालतू बात है कि कांग्रेस महागठबंधन से बाहर रहती और उसकी जगह राजद ही लड़ती तो जीत आसान थी। महा फालतू बात है। कांग्रेस यदि महागठबंधन में नहीं होती तो जनता में न विपक्ष की एकजुटता का मैसेज बनता और न मुस्लिम-यादव समीकरण के दाग से राजद मुक्त हो पाती। यह राहुल गांधी और कांग्रेस हाईकमान की गलती थी जो उसने अपने दायरे में जातिय समूह बढ़ाने का काम नहीं किया। राहुल गांधी और उनके सलाहकार समझ नहीं पा रहे है कि जैसे अमेरिका में जो बाईडेन व डेमोक्रेटिक पार्टी ने डोनाल्ड़ ट्रंप के झूठ से पार पाने के लिए लेफ्ट से लेकर रिपब्लिकन पार्टी के असंतुष्टों सभी को साथ में ले कर महाएलायंस से चुनाव लडा वैसा ही कुछ भारत में करना होगा।
महाराष्ट्र के शिवसेना- एनसीपी- कांग्रेस जैसा प्रयोग हर प्रदेश में जरूरी है। उसमें त्याग कांग्रेस को ही करना होगा। वह सब जगह जूनियर रह कर चुनाव लड़े तब भी उसकी अकेले अखिल भारतीय उपस्थिति बढ़ती जाएगी। सचमुच यदि बिहार में कांग्रेस ने अपनी सत्तर सीटों में तीस सीट भी उपेद्र कुशवाह, पप्पू यादव जैसे क्षेत्र-जाति विशेष की नेताओं को दे देती होती, एलायंस में पांच-छह पार्टियां बढा कर महागंठबंधन का केनवस बनवा दिया होता तो न केवल तेजस्वी का दहला सुपरहिट होता बल्कि कांग्रेस की समझदारी का ढ़ंका भी बज रहा होता जबकि अब, चुनाव नतीजों के बाद हर कोई उस पर ठिकरा फोड रहा है। तभी बिहार ने विपक्ष को भले जीताया न हो विपक्ष को समझाया कई तरह से है। बिहार का परिणाम सन् 2019 बाद के अनुभव में बन रहे मोदी के गिरते ग्राफ का क्रमशः विस्तार है तो विपक्ष के लिए फिर यह सबक कि वह पहले नरेंद्र मोदी की वोट फैक्ट्री को समझे तो सही।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)