जब नसीब ही ऐसा तो काहें का रोना-पीटना

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हां, रोना क्यों? क्यों फालतू का रोना कि कर्नाटक व गोवा में क्या हो रहा है या भाजपा बन रही कांग्रेस या बजट बेमतलब! यह सब हमें सोचना ही नहीं चाहिए। जब नरेंद्र मोदी को हम हिंदुओं ने मन-मंदिर का देवता बना लिया है, उनका नाम ले कर लंगूर सेना तलवार और मंजीरा लिए हर, हर मोदी देश में बनवा चुकी है तो विश्वास रखिए प्रभुजी सब ठीक करेंगे। सोचिए कोई मामूली बात है जो मुस्लिम महिला सांसद नुसरत जहां मांग में सिंदूर लगाने लगी है! लोग मुसलमान को पेड़ पर बांध जयश्री राम के नारे लगवा रहे हैं। खांटी कांग्रेसी हिंदू हो भाजपाई बन रहे हैं। भारत चांद को छू रहा है। ट्रंप-शी-पुतिन सब नरेंद्र मोदी को गले लगा रहे हैं। कश्मीर घाटी में ठुकाई हो रही है। मुसलमानों के लिए दो बच्चे की शर्त मंत्री की जुबानी सुनाई देने लगी है। पाकिस्तान दिवालिया हो गया है तो अयोध्या में मंदिर को लेकर भी रोजाना-रोजाना सुनवाई संभव है।

इतना सब कुछ और फिर भी नसीब का रोना! संभव है मेरे सामने नसीब का रोना-धोना करने वाले इसलिए आते हैं क्योंकि मैं नसीब से हट कर राष्ट्र-राज्य की दशा-दिशा बूझने में भटका रहता हूं। तभी मुझसे जो मिलता है वह रोना लिए होता है कि निठल्ले बैठे हैं और नसीब को रो रहे हैं जबकि आप हैं जो हिंदू को कोस रहे हैं। आप हिंदू के दिमाग को दोषी मानते हैं जबकि हकीकत में ईवीएम दोषी है।

फालतू बात। यदि ईवीएम दोषी है तो वह भी क्या इसलिए नहीं कि नसीब ही हमारा ऐसा है! हम जिससे ईमानदारी की उम्मीद करते हैं, वह भी खोटा निकलता है। जब बैलेट बॉक्स थे तब नसीब का रोना यह कहते हुए था कि लालू ने सब वोट उड़ा लिए और उसकी जगह ईवीएम लाए तो फिर खोटे नसीब का रोना रोते हुए कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने सारे वोट अपने डलवा दिए!

तो समस्या क्या हिंदू के नसीब की नहीं है? कागज के मतपत्र हों तो लालू यादव से नसीब और यदि ईवीएम से वोट तो नरेंद्र मोदी से नसीब। हम हिंदू नसीब ही ऐसा लिए हुए हैं कि नेहरू हों, इंदिरा हों, डॉ. मनमोहन सिंह या बिहार में जगन्नाथ मिश्र, लालू यादव, नीतीश कुमार सबसे अंत ले दे कर नसीब का रोना है। इसलिए अपनी थीसिस है कि हिंदू को अपने नसीब पर कतई नहीं रोना चाहिए क्योंकि उसे नसीब में जीने का सनातनी श्राप है। वह हमेशा नसीब के श्राप में ही जीता आया है।

समझने वाली बात यह है कि हिंदू दिमाग की जो चिप प्रोग्रामिंग है वह भी नसीब से है और ईवीएम मशीन भी नसीब है। अयोध्या में मंदिर तोड़ने वाला बाबर भी हमारा नसीब था तो मंदिर बनवाने की बात करने वाले नरेंद्र मोदी, अमित शाह भी नसीब के चेहरे हैं। निमित्तों से जब हमारा नसीब है और भक्ति हमारा स्वभाव तो गिला-शिकवा, रोना भला क्यों? जैसे रामजी चाह रहे हैं या चाहेंगे वैसे ही हमें जीना है। हमें सोचने की जरूरत नहीं है कि ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए।

आज हमारा नसीब यदि मोदीजी के चरणों का है तो उनकी पादुकाओं पर नजर टिका कर हमें विश्व गुरू बनने की, पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनोमी बनने का सपना देखते हुए व्हाट्सएप से विश्व गुरू हो जाने के भान, जनधन खातों में कैश बैक या दो-दो हजार रुपए के भत्ते के डलने के परम आंनद में जीना चाहिए। कोई बात नहीं जो दो रुपए प्रति लीटर डीजल की मूल्य बढ़ोतरी से किसान साल में निराकार छुटपुट दस हजार रुपए का सरकार को चढ़ावा चढ़ा दे पर सरकार, आशीर्वाद रूप में उसे, उसके खाते में दो-दो हजार करके छह हजार रुपए साल में तो दे देगी। छह हजार रुपए की प्रभुजी से खैरात फिर भी नसीब में खोट सोचना!

सो, निराकार नसीब का रोना न रोएं, साकार मोदी और उनके साकार पांच ट्रिलियन डॉलर के आंकड़े वाले लंगूरों के जश्न पर फोकस रखें। हिंदू की नियति आस्तिक रहना भी है। हिंदू नहीं भटकता बुद्धि और तर्क की फिजूल नास्तिक चखचख में। तभी तुलसीदासजी हिंदुओं का पोस्टमार्टम करके बता गए हैं कि होइहें वोही जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ मतलब जो कुछ राम (मोदीजी) ने रच रखा है या रचेंगे वहीं होगा। उसी में आनंद है। तर्क करके, सोच कर क्या फायदा!

इसलिए न महसूस करो, न सोचो, न रोओ न हंसो! आंख, कान, मुंह, बुद्धि के सभी खिड़की-दरवाजे बंद कर बनो ऐसे दास कि प्रभुजी हो जाए खुश! हां, धन्य नसीब हमारा जो हमारे आज पालनहार हैं जगदगुरू, सर्वज्ञ श्रीश्री नरेंद्र मोदी!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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