गिलानी : घाटी हमारी-हीरो पाक का !

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कश्मीरी नेता सैयद अली शाह गिलानी की मौत पर पाकिस्तान गमगीन है। पाकिस्तान के आंसू समझ में आते हैं। एक दिन के शोक व पाक झंडे का आधा झुके रहना बताता है कि गिलानी का पाकिस्तान के लिए या महत्व था! तभी सोचें, कश्मीर घाटी में पाकिस्तानी तराना बजवाने के लिए गिलानी ने क्या कुछ नहीं किया होगा! तय मानें कि 1947 के बाद पहले शेख अब्दुल्ला और फिर सैयद अली शाह गिलानी वे दो कश्मीरी नेता थे, जिन्होंने इस्लाम की जिद्द पर पाकिस्तान बनने के बाद कश्मीर को इस्लाम का अगला पड़ाव बनवाया। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीरियत के हवाले अलगाव बनवाया वहीं गिलानी ने कश्मीरियत को खत्म कर इस्लामियत में घाटी को बदला और लोगों पर वह जादू बनाया कि जब भी वे कहते लोग सड़कों पर उमड़ पड़ते। गिलानी का दो टूक कहना होता था- इस्लाम के ताल्लुक से, इस्लाम की मोहब्बत से, हम पाकिस्तानी हैं और पाकिस्तान हमारा है! तभी आश्चर्य नहीं जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा- उन्होंने (गिलानी) पूरा जीवन अपने लोगों और उनके आत्मनिर्णय के अधिकार के संघर्ष में न्योछावर कर दिया।

उन्हें कैद में भारत ने प्रताडि़त किया, लेकिन फिर भी कभी झुके नहीं। हम पाकिस्तानी उनके साहस को सलाम करते हैं। हमें उनके वो शब्द याद हैं- हम पाकिस्तानी हैं और पाकिस्तान हमारा है। उनकी मौत के शोक में पाकिस्तान का राष्ट्रध्वज आधा झुका रहेगा और एक दिन का आधिकारिक शोक रहेगा। इमरान के अलावा पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय, एनएसए व सेना की और से भी शोक संदेश जारी हुए। पाक विदेश मंत्रालय ने कहा- गिलानी ने कश्मीर की तीन पीढिय़ों को प्रेरित किया। .उन्होंने अपनी विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया। पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने कहा कि वे पाकिस्तानियों और कश्मीरियों के हीरो थे। वहीं सेना की तरफ से बयान था कि कमर जावेद बाजवा ने सैयद अली शाह गिलानी की मौत पर दुख व्यत किया है। गिलानी कश्मीर की आज़ादी के आंदोलन के आदर्श थे। पाकिस्तानी एलिट के प्रतिनिधि अंग्रेजी अखबार डॉन ने रिपोर्ट में लिखा कि ‘गिलानी कश्मीर में भारतीय शासन के खिलाफ कभी नहीं झुकने वाले कैंपेनर थे। इस सबका क्या अर्थ है?

अपनी राय में पाकिस्तान के इस्लामी मिशन में घाटी को इस्लामियत में रंगने के नंबर एक रंगरेज थे गिलानी। आजादी नहीं इस्लामियत। अहम सवाल है कश्मीर घाटी से हिंदुओं, कश्मीरी पंडितों व कश्मीरियत-इंसानियत को खत्म करवाने में किसका ‘कैंपेनर’ रोल था? जवाब है गिलानी का। गिलानी ने ही कोई 35 साल पाकिस्तान, पाकिस्तान का खुले आम शोर बनवाया। घाटी को इस्लामियत (जमायत-ए-इस्लाम के नेटवर्क के बूते) की घाटी बनाया। क्यों कश्मीरी पंडितों को भगाने में यासीन मलिक जैसों का हाथ था लेकिन 1989 के चुनाव से पहले और उसके बाद की राजनीति में वीपी सिंह- मुफ्ती मोहम्मद के देशद्रोह में घाटी में जो स्थितियां बनीं उसका आईएसआई और गिलानी के साझे ने भरपूर फायदा उठाया और हिंदुओं का जातीय सफाया ‘एथनिक क्लीजिंग’ करवाई। 1989 से 1995 के छह सालों में सैयद अली शाह गिलानी ने भारत राष्ट्र-राज्य और उसके सैन्य बल को सचमुच जबरदस्त छकाया। तभी आजाद भारत के 75 साला सफर का सत्य है कि पाकिस्तान इस्लाम, ने अपनी मंशा जाहिर करने में कभी संकोच नहीं रखा।

भारत के ही हम लोग इस गलतफहमी में जीते रहे हैं कि 1947 में विभाजन हो गया है तो इस्लाम अब संतुष्ट है और भारत में रहे मुसलमान हिंदू बहुलता के सत्य में ढल कर सर्वधर्म समभाव याकि साझे चूल्हे, धर्मनिरपेक्षता में जीना अपना अहोभाग्य मानेंगे। पर ऐसा न शेख अब्दुल्ला ने सोचा और न सैयद गिलानी और जमायत इस्लामी नेताओं ने सोचा! तभी इस्लामी पाकिस्तान और हिंदू (धर्मनिरपेक्ष) भारत के शति परीक्षण का सेंटर कश्मीर घाटी है। पाकिस्तान ने संख्या बल की दलील पर 1947 से भारत के आगे जमू कश्मीर की चुनौती तुरंत पैदा की। इसे न पंडित नेहरू ने समझा और न नरेंद्र मोदी ने! तभी इस्लाम, इस्लामियत की अनदेखी कर कश्मीरियत, इंसानियत की दुहाई में भारत लगातार चुनौती से लड़ता हुआ है। उसने बेइतंहा ताकत झोंकी है। बेहिसाब पैसा खर्च किया है। अनुच्छेद 370 का विशेष दर्जा अलग बनाया। तथ्य है नरेंद्र मोदी ने भी पहले अनुच्छेद 370 के दर्जे और महबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री बनवा कर बेइंतहां उदारता दिखलाई।

लेकिन हर वत, हर मोड़ पर घाटी में आजादी, आजादी का शोर बनवाने के लिए कभी शेख अब्दुल्ला थे तो कभी सैयद अली शाह गिलानी जैसे पाकिस्तानी पैरोकार नेता! अनुभव में मेरा मानना है कि मुस्लिम नेता अपनी मान्यता, धर्म की अपनी जिद्द में सच्चे और बेबाक होते हैं। मुस्लिम लीग के जीएम बनातवाला, सुलेमान सेठ क्या सैयद अली शाह गिलानी आदि से बातचीत, इंटरव्यू से मेरी यह धारणा पुरानी है कि ये नेता छल-प्रपंच-झूठ में नहीं जीते। जबकि हम और हिंदू नेता क्योंकि झूठ में जीते हैं तो समस्या हमारे कारण है।

हम हिंदू झूठ, छल और मुगालतों में मानते हैं कि हम जैसे सोचेंगे, कहेंगे, करेंगे वैसे इस्लाम का व्यवहार होगा। मैंने सन् 2009 में अपने सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में गिलानी का लंबा इंटरव्यू किया था। फिर अनौपचारिक बातचीत से भी उन्हें समझने की कोशिश की। साफ जाहिर हुआ कि गिलानी अपनी सोच और इरादे के पक्के हैं तो राजनीति, सुलह-समझौते के विकल्प बन ही नहीं सकते हैं। गिलानी के लिए अनुच्छेद 370 के खास दर्जे का होना या न होना और कश्मीरियत जैसी बातों या मनमोहन सिंह सरकार की उदारताओं से रास्ता निकल आए या संभव ही नहीं है।

सो, दिल्ली से सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल या मध्यस्थ भेजने जैसी कवायदों से कुछ नहीं होना है। उन्हें मनाया, पटाया, समझाया नहीं जा सकता है। बहरहाल, बुधवार की रात 92 वर्षीय सैयद अली शाह गिलानी की मृत्यु कई मायनों में कश्मीर घाटी के एक अध्याय की समाप्ति है। केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय और प्रदेश के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा के प्रशासन ने दूरदर्शिता, समझदारी दिखलाई जो सुबह तड़के पौने पांच बजे गिलानी के परिजनों की मौजूदगी में उनका अंतिम संस्कार श्रीनगर के हैदरपुरा में स्थानीय कब्रिस्तान में हुआ। उनकी मृत्यु की खबर के बाद प्रशासनिक और पुलिस सख्ती व कश्मीर घाटी में मोबाइल डाटा और मोबाइल कॉलिंग पर रोक के एहतियाती बंदोबस्त भी समझ में आते हैं।

बहुत संभव है इससे श्रीनगर और घाटी में कुछ दिन बेचैनी और विरोध हो। तथ्य को नकार नहीं सकते कि घाटी में सैयद अली शाह गिलानी की लोकप्रियता गजब थी। क्यों हुर्रियत संगठन में फूट और अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद घाटी में हालात काफी बदले हैं। बावजूद इसके केंद्रीय गृह मंत्रालय और श्रीनगर में प्रशासन जानता है कि गिलानी के लिए सड़कों पर कैसा जनसमूह उमड़ सकता था। गिलानी के बाद हुर्रियत और अलगाववादी नेताओं की दशा-दिशा का जहां सवाल है तो केंद्र सरकार के पास अब और मौका है जो वह घाटी में खालीपन को नए प्रयोगों से भरवाए।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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