खिलाड़ी हवा में पैदा नहीं होते !

0
134

खिलाड़ी हवा में पैदा नहीं होते। इसी तरह वैज्ञानिक भी। लेकिन आज विषय खेल का है तो वैज्ञानिकों की बात नहीं। मगर इतना जरूर कि बिना ग्राउन्ड में जाए खेलों को और बिना लेब में जाए विज्ञान और वैज्ञानिकों को कोई नहीं समझ सकता! हर बार की तरह इस बार भी ओलम्पिक में कुछ न मिल पाना या बहुत कम मिलने का सिलसिला जारी है। लड़कियों के तीन मेडलों पर और हाकी में उनकी उम्मीदों पर ही हम बहुत खुश हैं। हर ओलम्पिक के समय यही होता है। निराशा, कुछ समय के लिए उठाए सवाल, मीडिया का खेलमय होना और फिर चार साल के लिए लंबी नींद। चार साल में बहुत तैयारी हो सकती है। मगर ओलम्पिक के या एशियाड या किसी और बड़े खेल आयोजन के समय के खेल फोबिया के बाद कोई खेल मैदानों, स्पोर्टस स्कूल, प्रशिक्षण सेंटर की तरफ झांक कर भी नहीं देखता।

खेल एक कल्चर है। कभी देखा है कि बसों में भारी भरकम किट लिए 7-8 साल के बच्चों को जाते हुए। कुछ समय तक मां या बाप साथ जाते हैं। फिर एकदम अकेले। मालूम है? सवारी व्यंग्य करती हैं। बच्चों को बैठने की सीट देना बड़ी बात उनके किट पर सवाल करते हैं। कितनी जगह घेर ली। आगे बोनट पर रख कर आओ। वहां से ड्राइवर भगाता है कि यहां नहीं पीछे जाकर रखो। पूरी बस में सहयोगी या संवेदनशील रवैया अपनाने वाला कोई नहीं। ऐसा नहीं है कि भले लोग होते नहीं हैं। मगर भीड़ से भरी बस में सब इस मनस्थिति में होते हैं कि होना जाना तो कुछ नहीं है। बेकार में भीड़ बड़ा रहे हैं। और आदतन व्यर्थ के सवाल पूछना तो हमारे यहां बहुत जरूरी हैं। अपने से हर कमजोर से। तो बच्चों से पूछते हैं, पढ़ते नहीं हो? मां बाप कहां हैं? सचिन बनोगे ? और फिर उपहास उड़ाने वाला हा हा हा!

मेट्रो में किराया ज्यादा है। उसमें खेलने वाले बच्चे ही नहीं पढ़ने जा रहे स्टूडेंट भी आपको कम दिखेंगे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा तो ध्वस्त कर दी गई है। कोई मांग भी नहीं करता कि खेलने वाले बच्चों और स्टूडेंटों को मेट्रो में कोई पास दिए जाएं। बड़ी समस्याएं हैं। लिखने से तो हमारे यहां अब कोई फायदा ही नहीं होता। मगर फिर भी आप इसके अलावा और क्या कर सकते हैं सोच कर लिखने वाला लिखता रहता है। तो समस्याएं कितनी छोटी मगर अनसुनी रह जाती हैं इसका एक उदाहरण कि स्टेडियमों के पास बसें रुकती भी नहीं हैं। इंडिया गेट पर महान मेजर ध्यानचंद के नाम पर नेशनल स्टेडियम है। उसके पास वाले बस स्टाप का नाम भी नेशनल स्टेडियम है। मगर वहां अधिकांश बसें नहीं रुकतीं। बच्चे किट उठाकर अंकल अंकल रोक दो प्लीज चिल्लाते रहते हैं। मगर बस आगे जाकर अगले स्टाप पर रुकती है। और यह तकलीफदेह दृश्य देखने के लिए कोई बस में बैठ सकता है कि बच्चों के समर्थन में कोई नहीं बोलता और ड्राइवर को नहीं रोकने के लिए उकसाते रहते हैं।

बहुत सी बाते हैं। जितना लिखें उतना कम है। मगर खास समझने की बात यह है कि ओलम्पिक में जो मेहनत के खेल खेले जाते हैं उनमें दमखम दिखाने वाले लड़के और लड़कियां बसों में ही चलते हैं। छोटे शहरो में साइकलों पर.. पैदल। हाकी कौन खेलता है? बाक्सिंग कौन करता है ? वज़न कौन उठाता है ? एक व्यक्तिगत बात बताते हैं। पुरानी। हमारी बेटी स्वीमिंग करती थी। बहुत छोटे से। एक दिन उसे स्टेडियम के पूल से लेकर वापस आ रहे थे बाक्सिंग रिंग के पास रुक गए। एक छोटे सा लड़का खासा फुर्तिला था। पिट भी रहा था। मगर पंच भी अच्छा लगा रहा था। बेटी छह या सात साल की होगी। अचानक बोली, मैं अपने भाई को बाक्सिंग नहीं करने दूंगी। भाई ने उसके उस समय शायद चलना भी शुरू नहीं किया था। तो यह है कंडीशनिंग। बचपन से आ जाता है कि कौन से खेल क्या हैं। क्या खतरे हैं! क्या संभावनाएं हैं!

खेलों में खतरे निश्चित हैं लेकिन भविष्य नहीं। भारत में इसीलिए ओलम्पिक में खेले जाने वाले खेलों में मध्यम वर्ग के लड़के लड़कियां नहीं जा पाते। ऐसा नहीं है कि वे कमजोर होते हैं। मगर उनके मां बाप ज्यादा दुनियादार होते हैं। ओलम्पिक में पदक न मिलने पर सबसे ज्यादा वही शोर मचाते हैं। मीडिया में भी वही हैं। तो वही लिखते हैं। और आजकल तो टीवी है वहां पता नहीं क्या क्या बोला जाता है। एंकर जिन्हें यह नहीं मालूम कि हाकी में कौन कितने नंबर की हाकी से खेलता है वे उन्हें रेंकिंग देते रहते हैं।

फारवर्ड की हाकी हल्की होती है। डिफेंस की भारी। एक बार जब हमें टीवी पर बुलाया जाता था तो किसी प्रसंग में यह कह दिया तो एंकर ने बैक ग्राउन्ड में रखी दोनों हाकी उठाकर वज़न तौलने का अंदाज करते हुए कहा। कि बताइये भारी है कि हल्की। हमने कहा नंबर देख लीजिए। कम नंबर की ह्ल्की ज्यादा नंबर की भारी। एंकर ने व्यंग्य से कहा कि आप तो हाकी भी जानते हैं। हमने कहा कि हाकी पर, ओलम्पिक पर यह चर्चा है। तो आप क्या उसे बुलाना चाहती थीं जो खेल जानता ही न हो? और उस दिन के बाद उस एंकर ने हमारे साथ बात करने से मना कर दिया।

तो यह है हमारे यहां का खेल माहौल। हम भारत रत्न क्रिकेट में देते हैं और मेडल हाकी, एथलिटिक्स और दूसरे खेलों में चाहते हैं। खेलों का पहला और एकमात्र भारत रत्न सचिन को दिया गया। जबकि डिजर्व करते थे मेजर ध्यानचंद। नाम से ज्यादा उनके बारे में कुछ लिखना या बताना तो उनका अपमान होगा। जो हम कभी भी नहीं कर सकते। इसी अगस्त महीने में उनका हैप्पी बर्थ डे भी है। प्रधानमंत्री मोदी ने अभी हाकी का सेमिफाइनल देखा और बताया कि वे देख रहे हैं। हम हार गए। कोई बात नहीं। टीम बहुत अच्छा खेली। स्कोर में फर्क ज्यादा है। मगर मैच बराबरी का था। तो भारतीय हाकी फिर जीत सकती है। जिन्दा हो सकती है। 15 अगस्त है। 29 अगस्त को दद्दा का 116 वां जन्मदिन। प्रधानमंत्री मोदी बड़ी घोषणा कर दें। भूल सुधार तो नहीं होगा। पहले भारत रत्न की बात ही कुछ और होती है। मगर फिर भी एक नई लहर आ जाएगी। ध्यानचंद हाकी के विश्व रत्न हैं। उनका तो सम्मान हम क्या बढ़ाएंगे! मगर उन्हें भारत रत्न देने से हॉकी का सम्मान बढ़ जाएगा। महिला और पुरुष दोनों हाकियों में एक नई प्रेरणा आ जाएगी।

खेलों में भारत रत्न की शुरुआत देर से हुई और गलत भी हुई। यूपीए सरकार ने जब सचिन को दिया तब भी लिखा कि गलत हुआ। खेलों के पहले भारत रत्न पर सचिन का हक नहीं था। उसे विनम्रता पूर्वक मना कर देना चाहिए था। राज्यसभा ठीक है। बहुत लोगों का मनोनयन होता रहता है। योग्य, कम योग्य, अयोग्य सबका।

ले लेते। मगर भारत रत्न के लिए कहना था कि पहले ध्यानचंद को, मिल्खा सिंह को, पीटी उषा को फिर आपकी मर्जी। मिल्खा तो अभी नहीं रहे। उस वक्त जिन्दा थे। खूब एक्टिव। भारत में व्यक्तिगत खेलों के लिए दौड़ के लिए उनसे ज्यादा किसने प्रेरणा दी? जीते जी मिल जाता तो बात ही क्या थी! लेकिन अभी भी देर आयद दुरुस्त आयद किया जा सकता है। मोदी जी देश को बता सकते हैं कि कांग्रेस ने गलती की थी। मैं उसमें सुधार कर रहा हूं। लेकिन ऐसा होगा नहीं

शकील अख्तर
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here