क्रांति ज्योति सावित्री बाई फुले की जयंती पर विशेष

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देश की महिलाओं की दशा और दिशा बदलने वाली प्रथम शिक्षिका

पाठशाला ही इंसानों का सच्चा गहना है। शिक्षा ही स्त्री का गहना है। शिक्षा का मार्ग ही नारी.मुक्ति का मार्ग है। यह बात उनकी रचनाओं से साफ जाहिर होती है। मसलन, ‘‘संगीत नाटिका, कविता में सावित्रीबाई कहती हैं ‘‘स्वाभिमान से जीने हेतु बेटियों पढ़ो-लिखो, खूब पढ़ो’’ पाठशाला रोज जाकर नित अपना ज्ञान बढ़ाओ, हर इंसान का सच्चा आभूषण शिक्षा है। हर स्त्री को शिक्षा का गहना पहनना है। देश के वंचित तबकों को शिक्षा से वंचित करके हजारों वर्षों तक गुलाम बनाकर रखा गया। सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा को गुलामी से मुक्ति का सबसे बड़ा हथियार बनाया। स्त्रियों एंव दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, शोषितों को शिक्षित करना अपने जीवन का मिशन बनाया था जो आज सबके सामने फलीभूत है। फुले दम्पत्ति के अलावा 19वीं सदी में शायद कोई ऐसी दूसरी शख्सियतें होगीं। जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी वंचित समाज की शिक्षा और उत्थान के लिए लगाया हो। जात-पात, अछूत प्रथाएं, ब्राह्मणवाद, अंधविश्वास, महिलाओं की दुर्दशा, किसानों और मजदूरों के शोषण के खिलाफ आधुनिक भारत में सावित्रीबाई फुले ने प्रखर तरीके से आवाज उठाई। सावित्रीबाई की इस लड़ाई में उनके जीवन साथी महात्मा ज्योति राव फुले (1827-1890) बराबर के शरीक थे। जिनसे उनकी नौ साल की उम्र में शादी हो गई थी।

संघर्ष के हर मोड़ पर दोनों साथ-साथ रहे। अपनी जिन्दगी में महात्मा ज्योति राव फुले आगमन पर खुशी का इजहार करते हुए, सावित्रीबाई ने अपनी कविता ‘‘संसार की राह में’’कहा ‘मेरे जीवन में जोतीराव तुम आए ऐसे, जैसे पराग फूलों में शहद, फूलों की कलियों में’जब औरतों को शिक्षा से अक्सर महरूम रखा जाता था। तब महात्मा ज्योति राव फुले ने सावित्रीबाई को पढ़ना-लिखना सिखाया। फुले-दम्पति ने पूरी जिन्दगी इस बात पर जोर दिया कि शिक्षा सबके लिए, खासकर शूद्र और अतिशूद्र, के लिए जरूरी है। बाबा साहेब अंबेडकर ने भी फुले-दम्पति के जीवन और विचारों से प्रेरणा ली और महात्मा ज्योति राव फुले को अपना गुरु माना। हजारों सालों से कुप्रथाओं को ढोता आ रहा हमारा देश भारत को संसार के सबसे अच्छा संविधान देकर मुक्त किया। सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को बॉम्बे प्रेसीडेंसी के नायगांव में हुआ था। जबकि उनकी मृत्यु 10 मार्च, 1897 को हुई। उस जमाने में भी बहुत सारे लोग समाज सुधार के पैरोकार थे। मगर किसी ने भी रूढ़िवादिता, दकियानुसी विचारों, अंधविश्वास, अछूत प्रथाएं, शोषण, ब्राह्मणवाद के खिलाफ उस तरह मुखालफत नहीं की। जैसा फुले दम्पति ने की। दोनों ने मुक्ति की बात सिर्फ भाषणों तक ही सीमित नहीं रखी। बल्कि उसे करके भी दिखाया। आखिरी साँस तक, सावित्रीबाई ‘प्लेग’ जैसी घातक महामारी से प्रभावित लोगों की सेवा करती रहीं। अफसोस की बात है आज भी बहुत सारे लोग उनकी कार्यों और विचारों से अनभिज्ञ हैं। इसके मूल में दो कारण हैं।

पहला, देश का ब्राह्मणवादी सत्ता वर्ग फुले दम्पत्ति के विचारों को अपने शोषणकारी तंत्र के खिलाफ समझता है और इसे दबाने की पूरी कोशिश करता है। दूसरा, उनकी रचनाओं विभिन्न भाषाओं में अनुवाद मौजूद नहीं है, जो इनके प्रचार प्रसार में बड़ी रुकावट है। अन्याय और शोषण को कैसे खत्म किया जाए। इस सवाल ने दुनिया के तमाम बड़ी और क्रान्तिकारी हस्तियों को परेशान किया है। इस सवाल से फुले दम्पति और उनके समकालीन कार्ल मार्क्स भी जूझे। यह कैसा इत्तेफाक था कि जब साल 1848 में कार्ल मार्क्स यूरोप में ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ लिखने में व्यस्त थे। उसी दौरान इधर भारत में फुले दम्पति ने शुद्र और अतिशूद्र महिलाओं के लिए स्कूल खोला और कहा कि शिक्षा की धार से गुलामी की जंजीर कट सकती है। उनके द्वारा शूद्र और अतिशूद्र (जिनको हजारों सालों से शिक्षा से वंचित रखा गया था) के लिए स्कूल खोलना एक क्रांतिकारी कदम था। आगे के सालों में इस तरह के और भी स्कूल खोले गए और वहां पढ़ने वालों में सब शामिल थे। जैसे महिलाएं, दलित, पिछड़े इत्यादि। फुले दम्पत्ति के इन कामो में फातिमा शेख का भी विशेष रूप से शामिल थीं। महात्मा ज्योति राव फुले ब्राह्मणवादी तंत्र से इस तरह क्षुब्ध थे कि उन्होंने धर्म परिवर्तन की भी वकालत की है। उनके मन में राजा बलि, ईसा मसीह के लिए बड़ी इज्जत थी।

उन्होंने पैगम्बर ए इस्लाम हजरत मोहम्मद साहेब की तारीफ में एक कविता भी लिखी और इस्लाम के अन्दर पाए जाने वाले प्रगतिशील पहलुओं को रेखांकित भी किया। महात्मा ज्योति राव फुले ने शिक्षा के अभाव को शूद्रों और अतिशूद्रों की गुलामी से जोड़ कर देखा। वर्ष 1873 में लिखी गई मशहूर और अहम किताब ‘गुलामगिरी’ में, महात्मा ज्योति राव फुले ने कहा कि हिन्दुस्तान पर निर्भर शूद्र और अतिशूद्र भारत के मूलनिवासी (नेटिव) हैं। अपनी ‘श्रेष्ठता’ बनाये रखने के लिए, धर्म और धार्मिक पुस्तकों का सहारा लिया। जिनकी मदद से लोगों को अज्ञानता के अंधेरे में रखा गया। गुलामी की यह बेड़ियाँ ‘मूलनिवायों’ को हजारों सालों से जकड़ी हुई हैं। सावित्रीबाई फुले ने अपनी छोटी सी कविता ‘शूद्र का शब्दार्थ’ में कहा, ‘शुद्र का तात्पर्य है ‘नेटिव’ अर्थात मूलनिवासी आक्रमणकारियों ने हमला किया और क्रूर दुष्टों ने हमें विक्षिप्त किया। विजेता बन कर हम पर ‘शुद्र’ शब्द थोपा’। इस गुलामी और शोषण से निजात कैसे मिले। फुले दम्पति का जवाब था। शिक्षा लो और अज्ञानता को दूर करो। शिक्षा से ही शूद्र और अतिशूद्र अपनी परिनिर्भरता को समझ पायेंगें और ‘बामन’ के जाल से निकल पाएंगे। ‘परिनिर्भर शूद्र’ कविता में, शिक्षा की अहमियत पर सावित्रीबाई ने कहा है ‘शूद्रों एवं अतिशूद्रों की दरिद्रता के लिए जिम्मेदार है अज्ञानता, रीति रिवाज, रूढ़ीवादी परम्पराओं की बेड़ियों में बंधे बंधे पिछड़ गए।

सबसे, परिणामस्वरुप गरीबी के तेजाब से झुलस गए’। शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में काम करने की वजह से, फुले दम्पति को प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणों का जबरदस्त विरोध झेलना पड़ा। ज बवह स्कूल जाया करती थीं उनके ऊपर पत्थर और गोबर फेके गए। मगर इस मुखालफत ने उनके संघर्ष को और भी बुलंद बना दिया। उनकी कठिन मेहनत की वजह से साल 1848-1852 के बीच 18 स्कूल और खुले। धीरे धीरे बहुत से लोगों ने अपनी सोच बदलने की शुरूआत की और अपनी बेटियों को फुले दम्पति के स्कूल में भेजना शुरू किया। उनके इन्हीं सब योगदानों को महत्ता देने के लिए शिक्षक दिवस (टीचर्स डे) को 3 जनवरी को मनाने की मांग हो रही है। दलित.बहुजन विचारों से जुड़े लोगों. विशेषकर विश्वविद्यालयों के बौद्धिक वर्ग और राजनितिक कार्यकर्ताओं ने, कई सालों ने इस दिशा में पहल भी की है और कई सालों से जेएनयू और एचसीयू जैसी बड़े शिक्षा केंद्रों में शिक्षक दिवस सावित्रीबाई के जन्मदिवस पर मनाया गया। सरकारी तौर से शिक्षक दिवस हर साल 5 सितम्बर को मनाया जाता है, जो देश के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉण् सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888-1975) का जन्मदिन है।

राधाकृष्णन की जगह सावित्रीबाई के जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाने की मांग करने वालों की दलील है कि राधाकृष्णन ब्राह्मण थे और उन्होंने निचली जाति के लोगों की शिक्षा के लिए कुछ नहीं किया है। मुझे लगता है कि इस तरह की मांगों को उठाना इस बात का सूचक है कि सावित्रीबाई के जीवन और दर्शन के बारे में जानकारी बड़ी तेजी से फैल रही है। शिक्षा के अलावा, सावित्रीबाई फुले ने विधवा -उत्थान और उनके पुनर्विवाह के लिए भी काम किया। उन्होंने काशीबाई नामक एक ब्राह्मणी विधवा से जन्मे बच्चे को गोद लेकर पढ़ाया लिखाया और डॉक्टर बनाया। बाद में उसका अंतर्जातीय विवाह भी करवाया। अछूत प्रथा के खात्मे लिए भी फुले दम्पति ने काफी काम किया। इस वजह से, उनको सब तरफ से विरोध झेलना पड़ा। यहाँ तक की सावित्रीबाई का भाई भी यह कहने लगा की कि अछूत के साथ जाने से वह भी अछूत हो जाएँगी। इस पर सावित्रीबाई ने अपने भाई से पूछा, ‘अपने जैसे इंसानों दलित और अछूत, को तुम इन्सान नहीं समझते। उनसे तुम परहेज करते हो, उन्हें अछूत, अस्पृश्य समझ कर दुत्कारते हो, क्यों करते हो ऐसा। जात पात, भेदभाव, गैर बराबरी, अंधविश्वास, शोषण, ब्राह्मणवाद से हमारा समाज आज भी जूझ रहा है। जिनके खिलाफ फुले दम्पति ने लगभग 150 साल पहले आवाज बुलंद की थी। सावित्रीबाई को याद करने इससे बेहतर तरीका और क्या होगा कि हम उनके बताये हुए रास्तों पर चलने की कोशिश करें। सही मायने में शिक्षक दिवस 5 सितंबर को नहीं। अपितु 3 जनवरी को मनाना चाहिए।

प्रस्तुतकर्ता सुदेश वर्मा, एच0आर0 मैनेजर, सुभारती मीडिया लिमिटेड मेरठ।

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